पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७१७

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६७८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । शानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥ १९ ॥ त्यक्त्वा कर्मफलासंग नित्यतृप्तो निराश्रयः। कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥२०॥ निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । शारीर केवलं कर्म कुर्वनामोति किल्विषम् ॥ २१ ॥ यहच्छालामसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः। (1) ज्ञानी पुरुष इसी को परिढत कहते हैं कि निसके समी समारम्म भयात् उद्योग फल की इच्छा से विरहित होते हैं, और जिसके कर्म ज्ञानामि से भस्म हो जाते है। ['ज्ञान से कर्म मस्म होते हैं, ' इसका अर्थ कर्मों को छोड़ना नहीं है किन्तु इस श्लोक से प्रगट होता है कि फल की इच्छा छोड़ कर कर्म करना; यही अर्थ यहाँ लेना चाहिये (गीतार. पृ. २०५-२८९ देखो)। इसी प्रकार भागे भगवद्भका वर्णन में जो " सवारम्मपरित्यागी-समस्त भारम्भ या उद्योग छोड़नेवाला-पद भाया है (गी. १२. १६, ११. २५) उसके अर्थ का निर्णय मी इससे हो जाता है। भव इसी मर्य को अधिक स्पष्ट करते हैं- (२०) कर्मफल की भासति छोड़ कर जोसदा तृप्त और निराधय है (अथांद जोपुरूष कर्मफल के साधन की आश्रयभूत ऐसी बुद्धि नहीं रखता कि अमुक कार्य की सिदि के लिये अमुक काम करता हूँ)-कहना चाहिये कि वह कर्म करने में निमम रहने पर भी कुछ नहीं करता । (२१) आशीः अर्थात फल की वासना छोड़नेवाला, चित्त का नियमन करनेवाला और सर्वसङ्ग से मुक्त पुरुष केवल शारीर पर्याद शरीर या कमौद्रियों से ही कर्म करते समय पाप का भागी नहीं होता। [कुछ लोग बीसवें श्लोक के निराश्रय शब्द का अर्थ 'घर-गृहस्पी न रखने वाला' (संन्यासी) करते हैं। पर वह ठीक नहीं है। पाश्रय को घर या डेरा कह सकेंगे; परन्तु इस स्थान पर कर्ता के स्वयं रहने का ठिकाना विवक्षित नहीं 1 अर्थ यह है, कि वह जो कर्म करता है उसका हेतु रूप ठिकाना (आश्रय) कहीं न रहे। यही अर्थ गीता के ६.१ श्लोक में 'अनाश्रितः कर्मफर्स' इन शब्दों से स्पष्ट व्यक किया गया है और वामन पगिडत ने गीता की यथार्थदीपिका नामक अपनी मराठी टीका में इसे स्वीकार किया है। ऐसे ही २१ वे श्लोक में 'शारीर' के मानी सिफ़ शरीर-पोषण के लिये भिक्षाटन भादि कर्म नहीं है। आगे पाँचवे अध्याय में “ योगी अर्थात् कर्मयोगी लोग भासक्ति अथवा काम्यबुद्धि को मन में न रख कर केवल इन्द्रियों से कर्म किया करते हैं" (५. ११) ऐसा नो वर्णन है, उसके समानार्थक ही " केवल शारीरं कर्म" इन पदों का सच्चा मर्य है। इन्द्रियाँ कर्म तो करती हैं, पर बुद्धि सम रहने के कारण उन कर्मों का पाप-पुण्य की को नहीं लगता।