गांता, अनुवाद और टिप्पणी-४ अध्याय । कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोतवानिति ।। ४ ।। श्रीभगवानुवाच । बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ॥५॥ अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृति स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥६॥ कर्मयोग का वर्णन है और स्पष्ट कहा है, कि " निःस्पृहता से अपना कार्य करते रहने से ही अन्त में परम सिद्धि मिलती है " (मनु ६.६६) । इससे स्पष्ट देख पड़ता है, कि कर्मयोग मनु को भी ग्राला था। इसी प्रकार अन्य स्मृतिकारों को भी यह मान्य था और इस विषय के अनेक प्रमाण गीतारहस्य के ११ वें प्रकरण के अन्त (पृ. ३६१-३६५) में दिये गये हैं। अव अर्जुन को इस पर- सम्परा पर यह शंका है कि- अर्जुन ने कहा-(१) तुम्हारा जन्म तो अभी हुआ है और विवस्वान् का इससे बहुत पहले हो चुका है। (ऐसी दशा में) मैं यह कैसे जानें कि तुमने (यह योग) पहले बतलाया? i [अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए, भगवान् अपने भवतारों के कार्यों का वर्णन कर प्रासकि-विरहित कर्मयोग या भागवतधर्म का ही फिर समर्थन करते हैं कि "इस प्रकार में भी कर्मों को करता पा रहा हूँ"-] श्रीभगवान ने कहा-(५) हे अर्जुन ! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं । उन सब को मैं जानता हूँ (और) हे परन्तप ! तू नहीं जानता (यही भेद है) ()मैं (सब) प्राणियों का स्वामी और जन्म-विरहित हूँ, यद्यपि मेरे प्रात्मस्वरूप में कमी मी व्यय अर्थात् विकार नहीं होता तथापि अपनी ही प्रकृति में अधिष्टित होकर मैं अपनी मायां से जन्म लिया करता हूँ। [इस श्लोक के अध्यात्मज्ञान में कापिल सांख्य और वेदान्त दोनों ही मतोंका
- मेल कर दिया गया है। सांख्यमत-वालों का कथन है, कि प्रकृति प्राप ही स्वयं
सृष्टि निर्माण करती है। परन्तु वेदान्ता लोग प्रकृति को परमेश्वर का ही एक स्वरूप समझ कर यह मानते हैं, कि प्रकृति में परमेश्वर के प्रधिष्ठित होने पर प्रकृति से न्यक्त सृष्टि निर्मित्त होती है। अपने भव्यक्त स्वरूप से सारे जगत् को निमार्ण करने की परमेश्वर की इस अचिन्त्य शक्ति को ही गीता में 'माया' कहा है। और इसी प्रकार श्वेताश्वतरोनिषद् में भी ऐसा वर्णन है-"मायां तु प्रकृति विद्यान्मायिन तु महेश्वरम् । अर्थात प्रकृति ही माया है और उस माया का अधिपति परमेश्वर है (वे.. ४. १०), और 'अस्मान्मायो सृजते विश्वमेतत् ' इससे माया का अधिपति सृष्टि उत्पन्न करता है (वे. ४.६) । प्रकृति को माया