पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७१

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । लिये नहीं है, अतएवं जिस आचरण से सब लोगों का कल्याण हो वह धाचरण, सिर्फ इसी कारण से निंद्य नहीं माना जा सकता कि शब्दोच्चार अयथार्य है। जिससे सभी की हानि हो, वह न तो सत्य ही है और न अहिंसा ही। शांतिपर्व (३२९. १३२८७. १९) में, सनत्कुमार के आधार पर नारदजी शुकजी से कहते हैं- सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत् । यद्भूतहितमत्यन्तं एतत्सत्यं मतं मम ।। "सच बोलना अच्छा है परन्तु सत्य से भी अधिक ऐसा यौलना अच्छाई जिससे सब प्राणियों का हित हो क्योंकि जिससे सब प्राणियों का अत्यन्त हित होता है वहीं, हमारे मत से, सत्य है।" यद्भूतहितं " पद को देख कर, माधुनिक उपयोगिता-बादी अंग्रेजी का स्मरण करके यदि कोई उक्त वचन को प्रतिक्ष कहना चाहे तो इंस्मरण रखना चाहिये कि यह वचन महाभारत के वनपर्व में ग्राह्मण और व्याध के संवाद में, दो तीन बार पाया है। उनमें से एक जगह तो" अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतहितं परम् "पाठ है (वन. २०६.७३), और दूसरी जगह " यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा" (वन. २०८.४), ऐसा पाठभेद किया गया है । सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य से 'नरो वा कुंजरो वा' कह कर, उन्हें संदेह में क्यों डाल दिया? इसका कारण वही है जो कपर कहा गया है, और कुछ नहीं । ऐसी ही और और बातों में भी यही नियम लगाया जाता है। हमारे शास्त्रों का यह कयन नहीं है कि मूठ बोल कर किसी खूनी की जान बचाई जावे । शास्त्रों में, खुन करनेवाले आदमी के लिये, देहांत प्रायश्चित्त अथवा वधदंड की सज़ा कही गई है। इसलिये वद सज़ा पाने अथवा वध करने ही योग्य है । सब शास्त्रकारों ने यही कहा है कि ऐसे समय, अथवा इसी के समान और किसी समय, जो आदमी भूठी गवाही देता ई वह अपने सात या अधिक पूर्वजों सहित नरक में जाता है (मनु. ८.८६-E;ममा. प्रा. ७.३)। परन्तु जब, कपर्व में वर्णित उक्त चोरों के दृष्टांत के समान, हमारे सच बोलने से निरपराधी आदमियों की जान जाने की प्राशा हो, तो उस समय क्या करना चाहिये । ग्रीन नामक एक अंग्रेज़ ग्रंथकार ने अपने नीतिशास्त्र का पोद- घात' नामक ग्रंथ में लिखा है कि ऐसे मौकों पर नीतिशास्त्र मूक हो जाते हैं। यद्यपि मनु और याज्ञवल्क्य ऐसे प्रसंगों की गणना सत्यापवाद में करते हैं, तथापि यह मी उनके मत से गौण बात है। इसलिये अंत में उन्होंने इस अपवाद के लिये मी प्रायश्चित्त बतलाया है-'तत्पावनाय निर्वाप्यश्चतः सारस्वतो द्विजः' (या. २.६३मनु... १०४-१०६)। कुछ बड़े अंग्रेजों ने, जिन्हें अहिंसा के अपवाद के विषय में आश्चर्य नहीं मालूम होता, हमारे शास्त्रकारों को सत्य के विषय में दोपदेने का यन किया है।