गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । अर्जुन उवाच । FS अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। परा का वर्णन हो चुकने पर, जब ब्रह्मा के सातवें, अर्थात् वर्तमान, जन्म का कृत. युग समाह हुया, तव- त्रेतायुगादौ च ततो विवस्वान्मनवे ददौ । मनुश्च लोकभृत्वयं सुतायेक्ष्वाकवे ददौ ।। इक्ष्वाकुणा च कथितो व्याप्य लोकानवास्थितः। गमिष्यति क्षयान्ते च पुनर्नारायणं नृप । यतीनां चापि यो धर्मः स ते पूर्व नृपोत्तम। कथितो हरिगीतासु समासविधिकल्पितः ॥ "त्रेतायुग के प्रारम्भ में विवस्वान ने मनु को (यह धर्म) दिया, मनु ने लोकधारणार्थ यह अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया, और इक्ष्वाकु से आगे सब लोगों में फैल गया । हे राजा ! सृष्टि का क्षय होने पर (यह धर्म ) फिर नारा- यण के यहाँ चला जावेगा । यह धर्म और ' यतीनां चापि' अर्थात् इसके साथ ही संन्यासधर्म भी तुझ से पहले भगवद्गीता में कह दिया है " ऐसा नारा- यणीय धर्म में ही वैशम्पायन ने जनमेजय से कहा है (ममा. शां. ३४८.५१- ५३) । इससे देख पड़ता है, कि जिस द्वापरयुग के अन्त में भारतीय युद्ध हुआ था, उससे पहले के त्रेतायुग भर की ही भागवतधर्म की परम्परा गीता में वर्णित है, विस्तारमय से अधिक वर्णन नहीं किया है । यह भागवतधर्म ही योग या कर्मयोग है। और मनु को इस कर्मयोग के उपदेश किये जाने की कथा, न केवल गीता में है, प्रत्युत मागवतपुराण (८. २४. ५५) में भी इस कथा का उल्लेख है और मत्स्यपुराण के ५२ वें अध्याय में मनु को उपदिष्ट कर्मयोग का महत्व भी बतलाया गया है। परन्तु इनमें से कोई मी वर्णन नारायणीयो- पाल्यान में किये गये वर्णन के समान पूर्ण नहीं है । विवस्वान मनु और इक्ष्वाकु की परम्परा सांख्यमार्ग को विलकुल ही उपयुक्त नहीं होती और सांख्य एवं योग दोनों के अतिरिक्त तीसरी निष्ठा गीता में वर्णित ही नहीं है, इस बात पर लक्ष्य देने से दूसरी रीति से भी सिद्ध होता है, कि यह परम्परा कर्मयोग की ही है (गी. २.३६)। परन्तु सांख्य और योग दोनों निष्ठामों की परम्परा यद्यपि . एक न हो तो भी कर्मयोग अर्थात् भागवतधर्म के निरूपण में ही सांस्य या संन्यासनिष्ठा के निरूपण का पर्याय से समावेश हो जाता है (गीतार-पृ.१६० देखो)। इस कारण वैशम्पायन ने कहा है, कि भगवद्गीता में यतिधर्म अर्थात संन्यासधर्म भी वर्णित है । मनुस्मृति में चार भाश्रम धर्मों का जो वर्णन है, उसके कई अन्याय में पहले यति अर्थात् संन्यास माघम का धर्म कह चुकने पर विकल्प से " वेदसंन्यासिकों का कर्मयोग " इस ना से गीता या मागवतधर्म के
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