गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । IS मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीनिर्ममो भूत्वा युद्धयस्व विगतज्वरः ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्टन्ति मानवाः। श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥३१॥ ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥२२॥ सदृशं चेटते स्वस्याः प्रकृतेर्शानवानपि । प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिम्यति ॥ ३३ ॥ इंद्रियस्यद्रियस्याथै रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेनी हस्य परिपंथिनी ॥३४॥ (२०) (इसलिये हे अर्जुन ! ) मुझ में अध्यात्म बुद्धि से सब कमों का संन्यास ज्यांत् अर्पण करके और (फल की) नाशा एवं ममता छोड़ कर त् निश्चिन्त हो करके युद्ध कर! [अब यह बतलाते हैं कि, इस उपदेश के अनुसार बर्ताव करने से क्या फल मिलता है और वर्ताव न भरने से कैसी गति होती है- () जो श्रद्धावान् (पुरुष) दोषों को न खोज कर मेरे इस मत के अनुसार.. नित्य वर्ताव करते हैं, वे भी कम से अर्थात् कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं । (१) पस्नु जो दोपदृष्टि से शंकाएँ करके मेरे इस मत के अनुसार नहीं वर्तते, टन सर्व- ज्ञान-विमूढ़ अर्थात् पक्के मूर्ख भविवेकियों को नष्ट हुए सनमो । [कर्मयोग निष्काम बुद्धि से कर्म करने के लिये कहता है। उसकी श्रेय- स्करता के सम्बन्ध में, ऊपर अन्वय-व्यतिरेक से जो फलश्रुति वतलाई गई है, ससे पूर्णतया व्यक्त हो जाता है कि गीता में कौन साविषय प्रतिपादन है। इसी
- कर्मयोग-निरूपण की पूर्ति के हेतु भगवान् प्रकृति की प्रबलता का और फिर से
रोकने के लिये इन्द्रिय-निग्रह का वर्णन करते हैं- (२) ज्ञानी पुरुष मी अपनी प्रकृति के अनुसार वर्तता है। समी प्राणी (अपनी-अपनी) प्रकृति के अनुसार रहते हैं, (वहाँ) निग्रह (जबर्दस्ती) क्या करेगा? (२) इन्द्रिय और उसके (शब्द-स्पर्श आदि) विषयों में प्रीति एवं द्वेष (दोनों) व्यवस्थित हैं अर्याद स्वभावतः निश्चित हैं। प्रीति और द्वेष के वश में न जाना चाहिये (क्योंकि ये मनुष्य के शत्रु है। [वैतीसवें श्लोक के निग्रह' शब्द का अर्थ 'निरा संयमन' ही नहीं है, किन्तु उसका अर्थ जवरदस्ती' अथवा 'ह' है। इन्द्रियों का योग्य संयमन तो गीता को इष्ट है, किन्तु यहीं पर कहना यह है कि इसे या ज़बर्दस्ती से इन्द्रियों की स्वाभाविक वृत्ति को ही एकदम मार डालना सम्भव नहीं है। उदाहरण लीजिये, जब तक देह है तब तक भूख-प्यास श्रादि धर्म, प्रकृति सिद्ध