६६० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्रं । यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवतरोजनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।२।। दिया है। यह तो सिद्ध किया कि ज्ञानी पुरुषों का लोगों में कुछ अटका नहीं रहता; तो भी जव उनके कर्म छुट ही नहीं सकते तब तो उन्हें निष्काम कर्म ही करना चाहिये । परन्तु, यद्यपि यह युति नियमसङ्गत है कि कर्म जब इट नहीं सकते हैं तब उन्हें करना ही चाहिये तथापि सिर्फ इसी से साधारण मनुष्यों का पूरा पूरा विश्वास नहीं हो जाता । मन में शंका होती है कि, क्या कर्म टाने नहीं टिलते हैं इसी लिये उन्हें करना चाहिये, उसमें और कोई साध्य नहीं है ? अत- {एव इस श्लोक के दूसरे चरण में यह दिखलाने का आरम्म कर दिया है, कि इस जगत् में अपने कर्म से लोकसंग्रह करना ज्ञानी पुरुष का एक अत्यन्त महत्व पूर्ण प्रत्यक्ष साध्य है । " लोकसंग्रहमेवापि " के ' एवापि पद' का यही तात्पर्य है, और इससे स्पष्ट होता है कि अब भिन्न रीति के प्रतिपादन का प्रारम्भ होगया है। लोकसंग्रह' शब्द में 'लोक' का अर्थ व्यापक है। अतः इस शब्द में न केवल मनुष्यजाति को ही, वरन् सारे जगत् को सन्मार्ग पर लाकर उसको नाश से बचाते हुए संग्रह करना, अर्थात् भली भांति धारण, पोपण- पालन या वचाव करना इत्यादि सभी बातों का समावेश हो जाता है । गीता- रहस्य के ग्यारहवें प्रकरण (पृ.३८-३३६) में इन सब बातों का विस्तृत विचार किया गया है, इसलिये हम यहाँ उसकी पुनरुक्ति नहीं करते । अव पहने यह बतलाते हैं, कि लोकसंग्रह करने का यह कर्तव्य या अधिकार ज्ञानी पुरुष का ही क्यों है- (२१) श्रेष्ट (अर्थात् आत्मज्ञानी कर्मयोगी ) पुरुप नो कुछ करता है, वही अन्य अर्थात् साधारण मनुष्य भी किया करते हैं। वह जिसे प्रमाण मान कर अंगीकार करता है लोग उसी का अनुकरण करते हैं। [तैत्तिरीय उपनिपद् में भी पहले 'सत्यं वद, धर्म चर' इत्यादि उपदेश किया है और फिर अन्त में कहा है कि "जब संसार में तुम्हें सन्देह हो कि यहाँ कैसा बर्ताव करें, तब वैसा ही वर्ताव करो कि जैसा ज्ञानी, युक्त और धर्मिष्ठ ब्राह्मण करते हो" (ते. १.११. ४)। इसी अर्थ का एक श्लोक नारायणीयधर्म में भी है (मभा. शां. ३४४. २५); और इंसी आशय का मराठी में एक श्लोक है जो इसी का अनुवाद है और जिसका सार यह है "लोककल्या- णकारी मनुष्य जैसे वर्ताव करता है वैसे ही, इस संसार में, सव लोग भी किया करते हैं।" यही भाव इस प्रकार प्रगट किया जा सकता है-“देख भलों की चाल को वर्ते सब संसार।" यही नोककल्याणकारी पुरुष गीता का श्रेष्ट' कर्मयोगी है। श्रेष्ट शब्द का अर्थ आत्मज्ञानी संन्यासी नहीं है (देखो गी. ५. २)। भव भगवान् स्वयं अपना उदाहरण दे कर इसी अर्थ को और भी हद करते हैं,
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