गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । यशशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सीकल्विषैः। भुंजते ते त्वघं पापा ये पचयात्मकारणात् ॥ १३ ॥ भोग तुम्हें देंगे। उन्हीं का दिया हुआ उन्हें (वापिस.) न दे कर जो (केवल स्वयं) उपभोग करता है, वह सचमुच चोर है। 1 [जब ब्रह्मा ने इस सृष्टि अर्थात देव आदि सब लोकों को उत्पन्न किया, तब उसे चिंता हुई कि इन लोगों का धारण-पोपण कैसे होगा। महाभारत के नारा- यणीय धर्म में वर्णन है कि ब्रह्मा ने इसके बाद इजार वर्ष तक तप करके भगवान् को संतुष्ट किया; तब भगवान् ने सब लोगों के निर्वाह के लिये प्रवृत्ति प्रधान यज्ञ-चक्र उत्पन्न किया और देवता तथा मनुष्य दोनों से कहा कि इस प्रकार वर्ताव करके एक दूसरे की रक्षा करो । उक्त श्लोक में इसी कथा का कुछ शब्द-भेद से अनुवाद किया गया है (देखो ममा. शां. ३४०. ३८ से ६२)। इससे यह सिद्धान्त और भी अधिक दृढ़ हो जाता है, कि प्रवृत्ति प्रधान भागवतधर्म के तत्व का ही गीता में प्रतिपादन किया गया है । परन्तु भागवत धर्म में यज्ञों में की जानेवाली हिंसा गर्ष मानी गई है (देखो. ममा. शां. ३२६ और ३३७), इसलिये पशुयज्ञ के स्थान में प्रथम द्रव्यमय यज्ञ शुरू हुआ और अन्त में यह मत प्रचलित हो गया कि जपमय यज्ञ अथवा ज्ञानमय यज्ञ ही सब में श्रेष्ठ है (गी. ४. २३-३३) । यज्ञ शब्द से मतलव चातुर्वण्र्य के सब किमों से है और यह बात सष्ट है कि समाज का उचित रीति से धारण-पोषण होने के लिये इस यज्ञकर्म या यज्ञ-चक्र को अच्छी तरह जारी रखना चाहिये (देखो मनु. १.८७)। अधिक क्या कहें। यह यज्ञ-चक्र आगे बीसवें श्लोक में वर्णित लोकसंग्रह का ही एक स्वरूप है (देखो. गीतार.प्र.११) । इसी लिये स्मृतियों में भी लिखा है, कि देवलोक और मनुष्य लोक दोनों के संग्रहार्य भग- वान् ने ही प्रथम जिस लोकसंहकारक कर्म को निर्माण किया है, उसे मागे भिल्छी तरह प्रचलित रखना मनुष्य का कर्तव्य है और यही अर्थ अव अगले श्लोक में स्पष्ट रीति से बतलाया गया है-] (१३) यज्ञ करके शेष बचे हुए भाग को ग्रहण करनेवाले सज्जन सब पापों से मुक हो जाते हैं। परन्तु (यज्ञ न करके केवल) अपने ही लिये जो (अन्न) पकाते हैं, वे पापी लोग पाप भक्षण करते हैं। i [ऋग्वेद के १०, ११७. ६ मंत्र में भी यही अर्थ है। उसमें कहा है कि "नार्यमणं पुण्यति नो सखायं केवलायो भवति केवलादी " अर्थात्. जो मनुष्य मर्यमा या सखा का पोषण नहीं करता, अकेला ही भोजन करता है, उसे केवल पापी समझना चाहिये । इसी प्रकार मनुस्मृति में भी कहा है कि " मधं स केवलं भुंक्त यः पचत्यात्मकारणात् । यज्ञशिष्टाशनं होतत्सतामलं विधीयते ॥" (३. १८)-अर्थात् जो मनुष्य अपने लिये ही (अन्न) पाता है वह केवल . 1
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६९३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।