६४६ गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुहति । स्थित्वास्यामंतकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ।। ७२॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन- संवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥ 1 (७२) हे पार्थ ! ब्राह्मी स्थिति यही है। इसे पा जाने पर कोई भी मोह में नहीं फैसता; और अन्तकाल में अर्थात् मरने के समय में भी इस स्थिति में रह कर ब्रह्म- निर्वाण अर्थात् ब्रह्म में मिल जाने के स्वरूप का मोन पाता है 1 [यह ब्राह्मी स्थिति कर्मयोग की अन्तिम और प्रत्युत्तम स्थिति है (देखो गी.र. प्र... पृ. २३३ और २४८); और इसमें विशेषता यह है कि, इसके प्राप्त हो जाने से फिर मोह नहीं होता । यहाँ पर इस विशेषता के बतलाने का कुछ कारण है । वह यह कि यदि किसी दिन दैवयोग से घड़ी-दो घड़ी के लिये इस ब्राह्मी स्थिति का अनुभव हो सके, तो उससे कुछ चिरकालिक लाभ नहीं होता। क्योंकि किसी भी मनुष्य की यदि मरते समय यह स्थिति न रहेगी, तो मरण-काल में जैसी वासना रहेगी उसी के अनुसार पुनर्जन्म होगा (देखो गीता रहस्य पृ. २८)। यही कारण है जो ब्राझी स्थिति का वर्णन करते हुए इस लोक में स्पष्टतया कह दिया है कि 'अन्तकालेऽपि' अन्तकाल में भी स्थित- प्रज्ञ की यह अवस्था स्थिर बनी रहती है। अन्तकाल में मन के शुद्ध रहने की विशेष आवश्यकता का वर्णन उपनिषदों में (छ. ३. १४, १; प्र.३.१०) और गीता में भी (गी.८.५.१०) है। यह वासनात्मक कर्म अगले अनेक जन्मों के मिलने का कारण है, इसलिये प्रगट ही है कि अन्ततः मरने के समय तो वासना शून्य हो जानी चाहिये। और फिर यह भी कहना पड़ता है कि मरण-समय में वासना शून्य होने के लिये पहले से ही वैसा अभ्यास हो जाना चाहिये। क्योंकि वासना को शून्य करने का कर्म अत्यन्त कठिन है, और विना ईश्वर की विशेष कृपा के उसका किसी को भी प्राप्त हो जाना न केवल कठिन है, विरन् असम्भव भी है। यह तच्च वैदिकधर्म में ही नहीं है, कि मरण समय में वासना शुद्ध होनी चाहिये किन्तु अन्यान्य धर्मों में भी यह तत्त्व अङ्गीकृत हुमा है। देखो गीतारहस्य पृ. ४३६ 1] इस प्रकार श्रीभगवान् के गाये हुए अर्थात् कहे हुए उपनिषद् में, ब्रह्मविद्या न्तर्गत योग-प्रर्थात् कर्मयोग-शास्त्रविषयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में सांख्ययोग नामक दूसरा अध्याय समाप्त हुआ। [इस अध्याय में, प्रारम्म में सांख्य अथवा संन्यासमार्ग का विवेचन है, इस कारण इसको सांख्ययोग नाम दिया गया है। परन्तु इससे यह न समझ लेना चाहिये कि पूरे अध्याय में वही विषय है । एक ही अध्याय में प्रायः भनेक
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६८५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।