गांता, अनुवाद और टिप्पणी -२ अध्याय । दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागमयक्रोधः स्थितधीसुनिरुच्यते ॥५६॥ यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनंदति न द्वष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ।। यदा संहरते चायं कूमौऽगानीव सर्वशः। इंद्रियाणींद्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। ५८ ॥ विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसव रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ ५९ ॥ काम प्रथात् वासनाओं को छोड़ता है और अपने आप में ही सन्तुष्ट होकर रहता है, तब उसको स्थितप्रज्ञ कहते हैं। (६) दुःख में जिसके मन को खेद नहीं होता, सुख में जिसको शासक्ति नहीं और प्रीति, भय एवं क्रोध जिसके छूट गये हैं, उसको स्थितप्रज्ञ मुनि कहते हैं। (५७) सब बातों में जिसका मन निःसङ्ग हो गया, और यथाप्राप्त शुभ-अशुभ का जिसे आनन्द या विपाद भी नहीं, (कहना चाहिये कि) उसकी धुद्धि स्थिर हुई । (८) जिस प्रकार कछुवा अपने (हाथ-पैर आदि) अवयव सब ओर से सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार जब कोई पुरुष इन्द्रियों के (शब्द, स्पर्श आदि) विषयों से (अपनी) इन्द्रियों को खींच लेता है, तब (कहना चाहिये कि) उसकी बुद्धि स्थिर हुई । (५) निराहारी पुरुष के विषय छूट जावें, तो भी (उनका) रस अर्थात् चाह नहीं छूटती। परन्तु परया का अनुभव होने पर चाह भी छूट जाती है, अर्थात् विषय और उनकी चाह दोनों छूट जाते हैं। । [अन्न से इन्द्रियों का पोपण होता है। अतएव निराहार या उपवास करने से इन्द्रिया अशक्त होकर अपने-अपने विषयों का सेवन करने में असमर्थ हो जाती है । पर इस रीति से विषयोपभोग का छटना केवल जबर्दस्ती की, भशकता की, चाय क्रिया हुई। इससे मन की विषयवासना (रस) कुछ कम नहीं होती, इसलिये यह वासना जिससे नष्ट हो उस ब्रह्मज्ञान की प्रालि करना चाहिये। इस प्रकार ब्रह्म का अनुभव हो जाने पर मन एवं उसके साप ही साथ इन्द्रियाँ भी आप ही आप तावे में रहती हैं। इन्द्रियों को ताबे में रखने के लिये निराहार आदि उपाय भावश्यक नहीं, यही इस श्लोक का भावार्य है। और, यही अर्थ लागे छठे अध्याय के श्लोक में स्पष्टता से वर्णित है (गी. ६. १६, १७ और ३.६, ७ देखो), कि योगी का आहार नियमित रहे, वह माहार विहार श्रादि को बिलकुल ही न छोड़ दे। सारांश, गीता का यह सिद्धान्त ध्यान में रखना चाहिये, कि शरीर को कृश करनेवाले निराहार आदि साधन एकाङ्गी हैं। अतएव व त्याज्य हैं। नियमित माहार-विहार और ब्रह्मज्ञान ही इन्द्रिय निम का उत्तम साधन है। इस लोक में रस शब्द का 'जिहा से अनुभव गी. र.८१.
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६८०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।