६४० गीतारहस्य मयत्रा कर्मयोगशास्त्र । श्रुतिचिप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। समाधायचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥५३॥ अर्जुन उवाच । Sस्थितप्रसस्य का भापा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधोः किं प्रभापत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ५४॥ श्रीभगवानुवाच । प्रजहाति यदा कामान्सन्पिार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रशस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥ [अर्थात तुझे कुछ अधिक सुनने की इच्छा न होगी; क्योंकि इन बातों के सुनने से मिलनेवाला फल तुझे पहले ही प्रात हो चुका होगा । निवेद' शब्द का उपयोग प्रायः संसारी प्रपञ्च से उकताइट या वैराग्य के लिये किया जाता है। इस लोक में उसका सामान्य अर्थउपजाना" या "चाह न रहना ही है। अगले लोक से देख पड़ेगा, कि यह उकताहट, विशेष करके पीछे बतलाये हुए, गुण्य विषयक श्रीत कमी के सम्बन्ध में है। (५३) (नाना प्रकार के) वेदवाक्यों से घबड़ाई हुई तेरी बुद्धि जब समाधि पुत्ति में स्थिर और निश्चल होगी, तब (यह साम्पबुद्धिरूप) योग तुझे प्राप्त होगा। i [सारांश, द्वितीय अध्याय के ४४ व श्लोक के कथनानुसार, जो लोग वेद- वाक्य की फलश्रुति में भूले हुए हैं, और जो लोग किसी विशेष फल की प्राप्ति के लिये कुछ न कुछ कर्म करने की धुन में लगे रहते हैं, उनकी बुद्धि स्थिर नहीं होती और भी अधिक गड़बड़ा जाता है। इसलिये अनेक उपदेशों का सुनना छोड़ कर चित्त को निश्चल समाधि अवस्या में रखा ऐसा करने से साम्यबुद्धिरूप कर्मयोग तुझे प्राप्त होगा और अधिक उपदेश की ज़रूरत न रहेगी; एवं कर्म करने पर म. तुझे उनका कुछ पाप न लगेगा। इस रीति से जिस कर्मयोगी को दिया प्रज्ञा स्थिर हो जाय, उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। अब अर्जुन का प्रथ है कि उसका व्यवहार कैसा होता है। अर्जुन ने कहा-(५४) हे केशव ! (मुझे बतलामो कि) समाधिस्थ स्थितप्रज्ञ किसे कहें। उस स्थितप्रज्ञ काबोलना, बैठना और चलना कैसा रहता है? [इस लोक में 'भाषा' शब्द लक्षण के अर्थ में प्रयुक है और हमने उसका मापान्तर, उसकी मा धातु के अनुसार “किसे कहें किया है ।गीता- रहस्य के बारहवें प्रकरण (पृ. ३६६-३७७) में स्पष्ट कर दिया गया है, कि स्थितप्रज्ञ का वताव कर्मयोगशास्त्र का प्राधार है और इससे अगले वर्णन का महत्त्व ज्ञात होजावेगा। श्रीमगवान् ने कहा-(५५) हे पार्थ! अब (कोई मनुष्य अपने) मन के समस्त
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