गीता, अनुवाद और टिप्पणी-२ अध्याय । $$ एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिोंगे विमांशृणु । बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबंध प्रहास्यसि ॥३९॥ नहाभिकमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य प्रायते महतो भयात्॥४०॥ इत्यादि शंकाओं का निवारण सांख्यज्ञान से नहीं होता; और इसी से यह कह सकते हैं कि अर्जुन का मूल आक्षेप ज्यों का त्यों बना है। अतएव अब भगवान् कहते हैं- (३६) सौख्य अर्थात् संन्यासनिष्ठा के अनुसार तुझे यह बुद्धि अर्थात ज्ञान या एपपत्ति बतलाई गई। अब जिस बुद्धि से युक्त होने पर (कर्मों के न छोड़ने पर भी) हे पार्थ! तू कर्मबन्ध छोड़ेगा, ऐसी यह (कर्मः)योग की बुद्धि अर्थात ज्ञान ( तुझा से बतलाता हूँ)सुन । । [भगवद्गीता का रहस्य समझने के लिये यह श्लोक अत्यन्त महाया का है। सांख्य शब्द से कपिल का सांख्य या निरा वेदान्त, और योग शब्द से. पाताल योग यहाँ पर उद्दिष्ट नहीं है सांख्य से संन्यासमार्ग और योग से कर्ममार्ग ही का अर्थ यहाँ पर लेना चाहिये । यह बात गीता के ३.३ श्लोक से प्रगट होती है। ये दोनों मार्ग स्वतन्त्र हैं, इनके अनुयायियों को भी क्रम से 'सांख्य, संन्यासमार्गी, और योग 'कर्मयोगमार्गी कहते हैं (गी. ५.५) । इनमें सांख्यनिष्ठावाले लोग कभी न कभी अन्त में कर्मों को छोड़ देना ही श्रेष्ठ मानते , इसलिये इस मार्ग के तत्त्वज्ञान से अर्जुन की इस शंका का पूरा पूरा समाधान नहीं होता कि युद्ध क्यों करें ? अतएव जिस कर्मयोगनिष्ठा का ऐसा मत है, कि संन्यास न लेकर ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात मी निष्काम बुद्धि से सदैव कर्म करते रहना ही प्रत्येक का सच्चा पुरुषार्थ है, उसी कर्मयोग का (अथवा संक्षेप में योगमार्ग का) ज्ञान बतलाना अब प्रारम्भ किया गया है और गीता के अन्तिम अध्याय तक, अनेक कारण दिखलाते हुए, अनेक शंकाओं का निवारण कर, एसी मार्ग का पुष्टीकरण किया गया है। गीता के विषय-निरूपण का, स्वयं भगवान् का किया हुआ, यह स्पष्टीकरण ध्यान में रखने से इस विषय में कोई शंका रह नहीं जाती, कि कर्मयोग दी गीता में प्रतिपाद्य है। कर्मयोग के मुख्य मुख्य सिद्धांतों का पहले निर्देश करते हैं- (१०) यहाँ अर्थात् इस कर्मयोगमार्ग में (एक वार) प्रारम्भ किये हुए कर्म का नाश नहीं होता और (आगे) विन भी नहीं होते। इस धर्म का थोड़ा सा मी (धाचरण) षड़े भय से संरक्षण करता है। [इस सिद्धान्त का महत्व गीतारहस्य के दसवें प्रकरण (पृ. २४) में दिखलाया गया है, और अधिक खुलाला प्रागे गीता में भी किया गया है (गी. १६.४०-४६) | इसका यह अर्थ है, कि कर्मयोगमार्ग में यदि एक जन्म में सिदि न मिले, तो किया हुआ कम व्यर्थ न जा कर छागले जन्म में उपयोगी होता है और
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