गीता, अनुवाद और टिप्पणी-२ अध्याय । तथापि त्वं महाबाहो नैनं शोचितुमर्हसि ॥ २६ ॥ जातस्य हि ध्रुवो मृत्युवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ २७ ॥ $ अव्यक्तादीनि सूतानि व्यक्तमध्यानि भारत। अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥२८॥ (२६) अथवा, यदि तू ऐसा मानता हो, कि यह आत्मा (नित्य नहीं, शरीर के साथ ही) सदा जन्मता या सदा मरता है, तो भी हे महावाहु ! उसका शोक करना मुझे अचित नहीं । (२७) क्योंकि जो जन्मता है उसकी मृत्यु निश्चित है, और जो मस्ता है, उसका जन्म निश्चित है, इसलिये (इस) अपरिहार्य बात का (अपर पल्लिखित तेरे मत के अनुसार भी) शोक करना तुझ को उचित नहीं। । [स्मरण रहे कि ऊपर के दो श्लोकों में बतलाई हुई उपपत्ति सिद्धान्तपक्ष की नहीं है । यह भय घ=अथवा ' शब्द से बीच में ही उपस्थित किये हुए पूर्वपन का उत्तर है। प्रात्मा को नित्य मानो चाहे अनित्य, दिखलाना इतना ही ६, कि दोनों ही पनों में शोक करने का प्रयोजन नहीं है । गीता का यह सखा सिद्धान्त पहले ही बतला चुके हैं, कि आत्मा सत्, नित्म, अज, अविकार्य और मिचिन्त्य या निर्गुण है। अस्तु देह अनित्य है, अतएव शोक करना उचित नहीं दिसी की, सांख्यशास्त्र के अनुसार, दूसरी उपपत्ति बतलाते हैं-] (२०) सब भूत प्रारम्भ में अव्यक्त, मध्य में व्यक्त और मरण समय में फिर अन्यक्त होते हैं। ऐसी यदि सभी की स्थिति है) तो हे भारत! उसमें शोक किस यात का? । 'अन्यक' शब्द का ही अर्थ है-'इन्द्रियों को गोचर न होनेवाला मूल एक भव्यक द्रव्य से ही धागे क्रम-क्रम से समस्त व्यक्त सृष्टि निर्मित होती है, और अन्त में अर्थात् प्रलयकाल में सब व्यक्त सृष्टि का फिर अन्यक में ही सब हो जाता है (गी... १८) इस सांख्यसिद्धान्त का अनुसरण कर, इस लोक की दिलीलें हैं। सांख्यमतवालों के इस सिद्धान्त का खुलासा गीता-रहस्य के सातवें और माठवें प्रकरण में किया गया है। किसी भी पदार्थ की व्यक स्थिति यदि इस प्रकार कभी न कभी नष्ट होनेवाली है, तो जो व्यक्त स्वरूप निसर्ग से ही नाश- धान है, उसके विषय में शोक करने की कोई आवश्यकता ही नहीं। यही श्रक अन्यक ' के बदले अमाव' शब्द से संयुक्त होकर महाभारत के स्त्रीपर्व (ममा.वी. २.६) में पाया है। आगे "अदर्शनादापतिताः पुनश्चादर्शनं गताः। न ते तव न तेषां त्वं तत्र का परिदेवना ॥"(स्त्री. २. १३) इस श्लोक में प्रदर्शन ' अर्थात् नज़र से दूर हो जाना इस शब्द का भी मृत्यु को उद्देश कर उपयोग किया गया है । साण्य और वेदान्त, दोनों शास्त्रों के अनुसार शोक करमा यदि व्यर्थ सिद्ध होता है, और आत्मा को भनित्य मानने से भी यार यही पात सिद्ध होती है, तो फिर लोग मृत्यु के विषय में शोक क्यों करते हैं। ग्राम स्वरूप सम्बन्धी प्रशाम ही इसका उचर है। क्योंकि-]
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