गतिा, अनुवाद और टिप्पणी-२ अध्याय । गतासूनगतासूश्च नानुशोचन्ति पंडिताः ॥११॥ न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥१२॥ देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहांतरप्राप्तिधीरस्तत्र न मुह्यति ॥ १३ ॥ श्रीभगवान् ने कहा-(११) जिनका शौक न करना चाहिये, तू उन्हीं का शोक कर रहा है और ज्ञान की बात करता है ! किसी के प्राण (चाहे) जाय या (चाहे) ज्ञानी पुरुप उनका शोक नहीं करते। I [इस श्लोक में यह कहा गया है, कि परिस्त लोग प्राणों के जाने या रहने का शौक नहीं करते । इसमें जाने का शोक करना तो मामूली बात है, उसे न करने का उपदेश करना उचित है । पर टीकाकारों ने, प्राण रहने का शोक कैसा और क्यों करना चाहिये, यह शमा करके बहुत कुछ चर्चा की है और कई एकों ने कहा है, कि मूर्स एवं अज्ञानी लोगों का प्राण रहना, यह शोक का ही कारण है। किन्तु इतनी वाल की खाल निकालते रहने की अपेक्षा' शोक करना' शब्द का ही भला या बुरा लगना' अथवा 'परवा करना' ऐसा व्यापक अर्थ करने से कोई भी अड़चन रह नहीं जाती। यहाँ इतना ही वक्तव्य के, कि ज्ञानी पुरुष को दोनों यात एक ही सी होती हैं। (१२)देखो न, ऐसा तो है ही नहीं कि मैं (पहले ) कभी न था; तू और ये राजा जोग (पहले) न थे और ऐसा भी नहीं हो सकता कि हम सब लोग अब धागे गहोंगे। [इस श्लोक पर रामानुज भाप्य में जो टीका है, उसमें लिखा है-इस लोक से ऐसा सिद्ध होता है कि मैं ' अर्थात् परमेश्वर और "तू एवं राजा लोग" अर्थात् अन्यान्य पात्मा, दोनों यदि पहले (प्रतीतकाल में) थे और आगे होनेवाले हैं, तो परमेश्वर और प्रामा, दोनों ही पृथक् स्वतन्त्र और नित्य हैं। किन्तु यह अनुमान ठीक नहीं है, साम्प्रदायिक आग्रह का है। क्योंकि इस स्थान पर प्रतिपाद्य इतना ही है, कि सभी नित्य हैं। उनका पारस्परिक सम्बन्ध यहाँ यतलाया नहीं है और बतलाने की कोई पावश्यकता भी न थी। जहाँ वैसा प्रसा आया है, वहाँ गीता में ही ऐसा अद्वैत सिद्धान्त (गी.८.४, १३.३१) सिट रीति से बतला दिया है, कि समस्त प्राणियों के शरीरों में देहधारी आत्मा मैं अर्थात् एक ही परमेश्वर हूँ।] (१३) जिस प्रकार देह धारण करनेवाले को इस देह में बालपन, जवांनी और बुढ़ापा प्राप्त होता है, उसी प्रकार (आगे) दूसरी देहप्रास हुआ करती है। (इसलिये) इस विषय में ज्ञानी पुरुष को मोहं नहीं होता। । [अर्जुन के मन में यही तो बड़ा डर या मोह था, कि "अमुक को मैं कैसे
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