पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६६

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कर्मजिज्ञासा। २६ का वर्णन शेक्सपीयर ने किया है । रोम नगर में कोरियोलेनस नाम का एक शूर सरदार था । नगरवासियों ने उसको शहर से निकाल दिया । तब वह रोमन लोगों के शत्रुओं में जा मिला और उसने प्रतिज्ञा की कि " मैं तुसारा साथ कमी नहीं छोडुंगा"। कुछ समय के बाद इन शत्रुओं को सहायता से उसने रोमन लोगों पर हमला किया और वह अपनी सेना ले कर रोम शहर के दरवाजे के पास या पहुँचा । उस समय रोम शहर की स्त्रियों ने कोरियालेनस की स्त्री और माता को सामने कर के, मातृभूमि के संबंध में, उसको उपदेश किया । अन्त में उसको, रोम के शत्रुओं को दिये हुए वचन का भंग करना पड़ा । कर्तव्य अकर्तव्य के मोह में फँस जाने के ऐसे और भी कई उदाहरण दुनिया के प्राचीन और भाधुनिक इतिहास में पाये जाते हैं । परन्तु हम लोगों को इतनी दूर जाने की कोई आवश्यकता नहीं । हमारा महाभारत-ग्रंथ ऐसे उदाहरणों की एक बड़ी भारी खानि ही है। ग्रंथ के प्रारंभ (सा. २) में वर्णन करते हुए स्वयं व्यासजी ने उसको 'सूक्ष्मार्थन्याययुक्तंअनेकसमयान्वितं ' श्रादि विशेषण दिये हैं। उसमें धर्मशाख, अर्थशास्त्र, और मोक्षशास, मन कुछ, आ गया है। इतना ही नहीं, किंतु उसकी महिमा इस प्रकार गाई गई कि "यदिहास्ति तदन्यत्र योहास्ति न तत्कचित् " - अर्थात्, जो कुछ इसमें है वही और स्थानों में है, जो इसमें नहीं है वह और किसी भी स्थान में नहीं है (या. ६२. ३) । सारांश यह है कि इस संसार में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। ऐसे समय बड़े बड़े प्राचीन पुरुषों ने कैसा यर्ताव किया इसफा, सुलभ भाख्यानों के द्वारा, साधारण जनों को बोध करा देने ही के लिये 'भारत' का 'महाभारत' हो गया है। नहीं तो सिर्फ भारतीय युन्छ अथवा 'जय' नामक इतिहास का वर्णन करने के लिये अठारह पा की कुछ आवश्यकता न थी। अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातें छोड़ दीजिये हमारे तुम्हारे लिये इतने गहरे पानी में पैठने की क्या आवश्यकता है? क्या मनु प्रादि स्तुतिकारों ने अपने ग्रंथों में इस बात के स्पष्ट नियम नहीं बना दिये हैं कि मनुष्य संसार में किस तरह बर्ताव करे ? किसी की हिंसा मत करो, नीति से चलो, सच बोलो, गुरु और बड़ों का सन्मान करो, चोरी और व्यभिचार मत करो इत्यादि सब धर्मों में पाई जानेवाली साधारण आज्ञाओं का यदि पालन किया जाय, तो ऊपर लिखे कर्तव्य-प्रकर्तव्य के भागड़े में पड़ने की क्या भाव- श्यकता है ? परंतु इसके विरुद्ध यह भी प्रश्न किया जा सकता है कि, जब तक इस संसार के सब लोग उक्त शाज्ञानों के अनुसार पर्ताव करने नहीं लगे हैं, तब तक सजनों को क्या करना चाहिये ? क्या ये लोग अपने सदाचार के कारण, दुष्ट जनों के फंदे में, अपने को फंसा लें? या अपनी रक्षा के लिये 6 को तैसा" हो कर उन लोगों का प्रतिकार करें ? इसके सिवा एक बात और है। यद्यपि उक्त साधारण नियमों को नित्य और प्रमाणभूत मान लें, तथापि कार्य-