गीता, अनुवाद और टिप्पणी-२ अध्याय । नचेतद्धिमः कतरनो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। यानेव हत्वा न जिजीविपामस्तेऽवस्थिताः प्रमुख धार्तराष्ट्राः ॥क्षा कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः। पच्छ्यः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिप्यस्तेऽहं शाधि मांत्वां प्रपनम् ॥ न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोपणमिद्रियाणाम् । अवाप्य भूमावलपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥ ८॥ संजय उवाच एवमुफ्त्वा हपीक्रेशं गुडाकेशः परंतपः। (हो. तो भी) गुरु लोगों को मार करें इसी जगत् में मुझे उनके रक्त से सने पुए भोग भोगने पड़ेंगे [गुरु लोगों ' इस बहुपचनान्त शब्द से बड़े चूहों' का ही अर्थ सेना चाहिये। क्योंकि विया सिखलानेवाला गुरु एक द्रोगाचार्य को घोड़, सेना में और कोई दूसरा न था । युद्ध छिड़ने के पहले जय ऐसे गुरु लोगों-मर्थात् भीष्म, द्रोगा और शल्य - की पादयन्दना कर उनका प्राशीवाद लेने के लिये युधिष्ठिर रगाम में, अपना फवध उतार फर, नन्नता से उनके समीप गये, तय शिष्ट- सम्प्रदाय का उचित पालन करनेवाले युधिष्ठिर का अभिनन्दन फर सब ने इसका कारण रतलाया, कि दुर्योधन की भोर से हम क्यों लड़ेंगे। मयंस्य पुरुपो दासो दासस्त्वयों न कस्यचित् । इति सत्यं महाराज! पद्धोऽस्म्यर्थेन कीरवः॥ "सच तो यह है कि मनुष्य अर्थ का गुलाम है, अर्थ किसी का गुलाम नहीं; इसलिये हे युधिष्ठिर महाराज ! कौरवों ने मुझे अर्थ से जकड़ रखा है" (ममा. भी. स. ४३, श्लो. ३५, ५०, ७६) पर जो यह "अर्थ-लोलुप" शब्द है, वह इसी शोफ के अर्थ का घोतक है। (हम जय प्राप्त करें या हमें (चे जोग) जीत ले-इन दोनों बातों में श्रेयस्कर कौन है, यह भी समझ नहीं पड़ता। जिन्हें मार कर फिर जीवित रहने की हरछा नहीं ही ये कौरव (युद्ध के लिये)सामने हटे हैं! । ['गरीयः' शब्द से प्रगट होता है कि अर्जुन के मन में अधिकांश लोगों के अधिक सुख के समान कर्म और अकर्म की अधुता-गुरुता ठहराने की कलीटी यी; पर वह इस बात का निर्णय नहीं कर सकता था कि उस कसौटी के अनुसार किसकी जीत होने में भलाई है। गीतारहस्य पृ.८३-८४ देखो।] (७) दीनता से मेरी स्वाभाविक वृत्ति नष्ट हो है, (मुझे अपने) धर्म भयाद कर्तव्य का मन मोह हो गया है, इसलिये मैं तुमसे पचता हूँ। जो निश्चय सेय स्वर हो, वह मुझे यसलामो। मैं तुम्हारा शिप्य हूँ । मुम शरणागत को समझा- गये। () क्योंकि पृथ्वी का निष्कपटक समृह राज्य या देवताशी (स्वर्ग) का मी
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