गीतारहस्य मयवा कर्मयोगशास्त्र। द्वीतीयोऽध्यायः। मलय उवाच । द तथा उपचाविष्टमनुपूर्णाकुलेक्षणम् । वियांदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ १॥ श्रीभगवानुवाच । कुतस्त्वा कदमलमिदं विपमे समुपस्थितन् । अनार्यजुष्टमस्वयमकोतिकरमर्जुन ॥२॥ लैन्यं मा स्म गनः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । शुद्ध हदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोचिष्ट परंतप ।।३॥ अर्जुन उवाच । फर्य भीममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन । युमिः प्रतियोत्स्यामि पूजाहांवरिसूदन ।।४।। गुरुनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं मैक्ष्यमपीह लोके। हत्वार्यकामांस्तु गुरुनिहव मुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्यान् ॥५॥ दूसरा अध्याय। सञ्जय ने कहा-(1) इस प्रकार कला से स्यात, आँखों में माँ मरे हुए और विषाद पानेवाले कर्जुन से मधुसूदन (प्रौपा) यह बोले-श्रीमावान् ने कहा-(२) हे अजुन! सट के इस प्रशङ्ग पर तेरे (मन में) यह मोह (कश्मन) कहाँ से भा गया, जिसका निभायं प्रयांन सत्पुल्पा ने (कमी) भाचरण नहीं किया, वो अधोगति को पहुंचानवाला है. और वो दुष्कीतिकारक है! () पार्य! ऐसा नामदं मत हो! यह नुन्ने शोमा नहीं देता हरे शत्रुओं को ताप देने वाले ! अन्ताकरण की इस नुददुदाना को छोड़ कर (युद के लिये) खड़ा हो! [इस स्थान पर हम ने परन्तर शब्द का अर्थ कर तो दिया है। परन्तु बहुरे टिकाकारों का यह नव इमारी राय में युक्तिश्त नहीं है कि अनेक स्थानों पर मानवाले विशेषण रूपी संबोधन या कृपा-माटुंब के नाम गीता में गर्मित अथवा अभिप्राय सहित प्रयुन्छ जुए हैं। हमारा मत है, कि पयरचना के लिये अनुश्त नामों का प्रयास किया गया है और उनम कोई विशेष अयं उदिष्ट नहीं है। अतएव कई बार हम ने श्लोक में प्रयुक नामों का ही हुबहू अनुवाद न कर धुन' या 'श्रीकृपा ऐला साधारमा अनुवाद कर दिया है। भर्जुन ने कहा-(क) मधुसूदन ! मैं (लमाल भीम और ब्रम्प के साब ईशनगन युदने बाणों से कैसे लगा? () महात्मा गुरु नोगों को न मार कन, इस लोक में भीख मांग करके पैट-पावरा मी प्रेयस्का परन्तु अबोझुप
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