गीता, अनुवाद और टिप्पणा-१ अध्याय । संजय उवाच । एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । विसृज्य सशरं चापं शोकसंविनमानसः ॥४७॥ इति श्रीमद्भगवहीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशाले श्रीकृष्णार्जुन- संवादे अर्जुनविषादयोगेा नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥ (४७) इस प्रकार रणभूमि में भाषण कर, शोक से व्यथितचित्त अर्जुन (हाथ का) धनुप-याण डाल कर रथ मैं अपने स्थान पर याही बैठ गया! [स्य में खड़े हो कर युद्ध करने की भगाली थी, अतः "रय में अपने स्थान पर बैठ गया" इन शब्दों से यही अर्थ अधिक व्यक्त होता है, कि खिन्न हो जाने के कारण युद्ध करने की उसे इच्छा न थी! महाभारत में कुछ स्थलों पर इन रियों का जो वर्णन है, उससे देख पड़ता है, कि भारतकालीन रय प्रायः दो पहियों के होते थे; बड़े-बड़े रथों में चार चार घोड़े जोते जाते थे और रथी एवं सारधी-दोनों अगले भाग में परस्पर एक दूसरे की भाजू-बाजू में पैठते थे। रघ की पहचान के लिये प्रत्येक रथ पर एक प्रकार, की विशेष ध्वजा लगी रहती थी। यहचात प्रसिद्ध है, कि अर्जुन की ध्वजा पर प्रत्यक्ष हनुमान ही बैठे थे। इस प्रकार श्रीभगवान् के गाये हुए अर्थात् कहे हुए उपनिषद् में ब्रह्मविद्या- न्तर्गत योग-प्रर्थात् कर्मयोग-शास्त्रविषयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में, अर्जुनविषादयोग नामक पहला अध्याय समाप्त हुआ। । [गीतारहस्य के पहले (पृष्ठ ३), तीसरे (पृष्ठ ५६), और ग्यारहवें. (पृष्ठ ३५१) प्रकरण में इस सकल्प का ऐसा अर्थ किया गया है कि, गीता में केवन ग्रहाविद्या ही नहीं है, किन्तु उसमें ब्रह्मविद्या के आधार पर कर्मयोग का प्रतिपादन किया गया है । यद्यपि यह सकल्प महाभारत में नहीं है, परन्तु यह गीता पर संन्यासमार्गी टीका होने के पहले का होगा, क्योंकि संन्यासमार्ग का कोई भी परिडत ऐसा सल्प न लिखेगा । और इससे यह प्रगट होता है, कि गीता में संन्यासमार्ग का प्रतिपादन नहीं है, किन्तु कर्मयोग का, शास्त्र समझ कर, संवाद रूप से विवेचन है । संवादात्मक और शास्त्रीय पद्धति का भेद रहस्य के चौदहवें प्रकरण के प्रारम्भ में घतलाया गया है।] गी. र.७८
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