गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख। कृपया परयाविष्टो विपादन्निदमनचीत् । अर्जुन उवाच । दृष्ट्वमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥ २८॥ सीदति मम गात्राणि सुखं च परिशुष्यति । वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।। २९ ॥ गांडीवं संसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते । न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥ ३० ॥ निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव । न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥ ३१ ॥ न कांक्षे विजयं कृष्ण नच राज्यं सुखानि च । किं नो राज्येन गोविंद किं भोगै वितेन वा ॥ ३२॥ येषामथै कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च । त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ ३३॥ आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः। मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥३४॥ एतान्न हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन । अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥ ३५ ॥ निहत्य धार्तराष्ट्रानः का प्रीतिः स्याजनार्दन । देख कर, कि वे समी एकत्रित हमारे वान्धव हैं। कुन्तीपुत्र अर्जुन (२८) परम करुणा से व्याप्त होता हुआ खिन्न हो कर यह कहने लगा- अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! युद्ध करने की इच्छा से (यहाँ) जमा हुए इन स्वजनों को देख कर (२९) मेरे गात्र शिथिल हो रहे हैं, मुंह सूख रखा है, शरीर में कंपकपी उठ कर रोएँ भी खड़े हो गये हैं (२०) गाण्डीव (धनुष) हाय से गिरा पड़ता है और शरीर में भी सर्वत्र दाह हो रहा है। खड़ा नहीं रहा जाता और मेरा मन चक्कर सा खा गया है । (३) इसी प्रकार हे केशव! (मुझे सव) लक्षण विपरीत दिखते हैं और स्वजनों को युद्ध में मार कर श्रेय अर्थात् कल्याण (होगा ऐसा) नहीं देख पड़ता । (३२) हे कृष्ण! मुझे विजय की इच्छा नहीं, न राज्य चाहिये और न सुख ही । हे गोविन्द ! राज्य, उपमोग या जीवित रहने से ही हमें उसका क्या उपयोग है । (२३) जिनके लिये राज्य की, उपभोगों की और सुखों की इन्छा करनी थी, वे ही ये लोग जीव और सम्पत्ति की भाशा छोड़ कर युद्ध के लिये खड़े हैं। (३४) प्राचार्य, वड़े-बूढ़े, लड़के, दादा, मामा, ससुर, नाती, साले और सम्बन्धी, (३५) यद्यपि ये (हम) मारने के लिये खड़े हैं, तथापि हे मधुसूधन! त्रैलोक्य के राज्य तक के लिये, मैं (इन्हें) मारने की इच्छा नहीं करता; फिर
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