दूसरा प्रकरण। कर्मजिज्ञासा। किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । गीता १. १६ । भगवद्वीता के प्रारम्भ में, परस्पर विरुद्ध दो धर्मों की उलझन में फंस जाने के कारण अर्जुन जिस तरह कर्त्तव्यमूढ़ होगया था और उस पर जो मौका पा पड़ा था वह कुछ अपूर्व नहीं है । उन असमर्थ और अपना ही पेट पालनेवाले लोगों की बात ही मिन्न है नो संन्यास ले कर और संसार को छोड़ कर वन मे चले जाते हैं, अथवा जो कमजोरी के कारण जगत् के अनेक प्रन्यायों को चुपचाप सह लिया करते हैं। परन्तु समाज में रह कर ही जिन महान तथा कार्यकर्ता पुरुपों को अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन धर्म तथा नीतिपूर्वक करना पड़ता है, उन्हों पर ऐसे मौके अनेकवार आया करते हैं। युद्ध के प्रारम्भ ही में अर्जुन को कत्र्तव्य-जिज्ञासा और मोह हुआ । ऐसा मोह युधिष्ठिर को, युद्ध में मरे हुए अपने रिश्तेदारों का श्राद्ध करते समय, हुया था। उसके इस मोह को दूर करने के लिये शांतिपर्व' कहा गया है। कर्माकर्म संशय के ऐले अनेक प्रसंग हूँढ़ कर अथवा फल्पित करके उन पर बड़े बड़े कवियों ने सुरस काव्य और उत्तम नाटक लिखे हैं। उदाहरणार्य, सुप्रसिद्ध अंग्रेज नाटककार शेक्सपीयर का हैमलेट नाटक लीजिये । डेन्मार्क देश के प्राचीन राजपुत्र हैमलेट के चाचा ने, राज्यकर्ता अपने माई-ईमलेट के बाप को मार डाला हैमलेट की ता को अपनी स्त्री बना लिया और राजगद्दीभी छीन ली। तव उस राजकुमार के मन में यह झगडा पैदा हुआ, कि ऐसे पापी चाचा का वध करके पुत्र-धर्म के अनुसार अपने पिता के ऋण से मुक्त हो जाऊं; अथवा अपने संग धाचा, अपनी माता के पति और गद्दी पर बैठे हुए राजा पर दया करूं? इस मोह में पड़ जाने के कारण कोमल अंतःकरण के हमलेट की कैसी दशा हूई। श्रीकृष्ण के समान कोई मार्ग-दर्शक और हितका न होने के कारण वह कैसे पागल हो गया और अंत में 'जिये या मरें। इसी बात की चिन्ता करते करते इसका अन्त कैसे हो गया, इत्यादि वातों का चित्र इस नाटक में बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है। कोरियोलेनस' नाम के दूसरे नाटक में भी इसी तरह एक और प्रसंग ." पण्डितों को भी इस विषय में मोह जाया करता है, कि कर्म कौन सा है और अकर्म कौन सा है" । इस स्थान पर अमर्म शब्द को 'कन के अभाव' और : चुरे कर्म ' दोनों अर्थों में यथासम्भव लेना चाहिये । मूल श्लोक पर हमारी टीका देखो।
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