गीता के विषयों को अनुक्रमणिका । ६०५ सोलहवां अध्याय-देवासुरसम्पद्विभागयोग। १-३ देवी सम्पत्ति के छम्मीस गुण। ४ पासुरी सम्पत्ति के लक्षण । ५ दैवी सम्पत्ति मोक्षप्रद और आसुरी यन्धकारक है। -२० प्रासुरी लोगों का विस्तृत वर्णन । उनको जन्म-जन्म में पधोगति मिलती है। २१, २२ नरक के त्रिविध द्वार- काम, क्रोध और लोभ । इनसे यचने में कल्याण है। २३, २४ शास्त्रानुसार कार्य- अफार्य का निर्णय और पाचरण करने के विषय में उपदेश । ....पृ०८०६-८१५॥ सत्रहवाँ अध्याय-श्रद्धात्रयविभागयोग । १-४ अर्जुन के पूछने पर प्रकृति-स्वभावानुसार साविक आदि त्रिविध श्रद्धा का वर्णन । जैसी श्रद्धा वैसा पुरुष । ५, ६ इनसे भिन्न आसुर । ७-१० सात्विक, राजस और तामस आहार । ११-१३ त्रिविध यज्ञ । १४ १६ तप के तीन भेद- शारीर, वाचिक और मानस । १७-१८ इनमें सात्विक आदि भेड़ों से प्रत्येक त्रिविध है। २०-२२ सात्विक आदि त्रिविध दान। २३ ॐ तत्सत प्रमनिर्देश।२४-२७-इनमें से प्रारम्भसूचक 'सत्' से निष्काम और संत से प्रशस्त कर्म का समावेश होता है। २८ शेष अर्थात् असत् इहलोक और परलोक में निष्फल है। पृ०८५६-६२४ अठारहवाँ अध्याय-मोक्षसंन्यासयोग । १,२ अर्जुन के पूछने पर संन्यास और त्याग की कर्मयोगमार्गान्तर्गत व्याख्याएं ३-६ कर्म का त्याज्य-अत्याज्यविषयक निर्णय यज्ञ-याग आदि कर्मों को भी अन्यान्य फर्मों के समान निःसन बुद्धि से करना ही चाहिये । ७-६ कर्मत्याग के तीन मेद- सात्विक, राजस और तामस; फलाशा छोड़ कर कर्तव्य फर्म करना ही साविक स्याग है। १०, ११ कर्मफल-त्यागी सात्विक त्यागी है, क्योंकि कर्म तो किसी से भी छूट ही नहीं सकता । १२ कर्म का विविध फल साविक त्यागी पुरुष को यन्धक नहीं होता । १३-१५ कोई भी कर्म होने के पाँच कारण है, केवल मनुष्य ही कारण नहीं है। १६, १७ अतएव यह अहकार-बुद्धिकि मैं करता हूँ-छूट जाने से कर्म करने पर भी अलिप्त रहता है। १८, १६ कर्मचोदना और कर्मसंग्रह का सांख्यक्ति लक्षण, और उनके तीन भेद । २०-२२ सात्विक आदि गुणभेद से ज्ञान के तीन भेद । 'अविभक्तं विभक्तपु' यह साविक ज्ञान है। २३ - २५ कर्म को त्रिवि. धता । फलाशारहित कर्म साविक है। २६-२८ कत्ता के तीन भेद । निःस कत्ती साविक है । २६-३२ बुद्धि के तीन भेद । ३३-३५ प्रति के तीन भेद । ३६-३६ सुख के तीन भेद । आत्म-शुद्धिप्रसादज साविक सुख है । ४० गुणमेदं से सारे. जगत के तीन भेदं । ४१-४४ गुणभेद से चातुर्वण्यं की उपपाते; माहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के स्वभावजन्य कर्म । ४५, ५६ चातुर्वण्य -विहित समाचरण से श्री अन्तिम सिद्धि। ४७-४६ परधर्म भयावह है, कम लदोष होने पर भी
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