... गीता के विपयों की अनुक्रमणिका । भी सन्तुष्ट हो जाता है । २७,२८ सय कर्मों को ईश्वरार्पण करने का उपदेश । इसी के द्वारा कर्मबन्ध से छुटकारा और मोक्ष । २६-३६ परमेश्वर सब को एक सा है। दुराचारी हो या पापयोनि, सी हो, या वैश्य या शूद, निःसीम भक्त होने पर सब को एक ही गति मिलती है। ३४ यही मार्ग अङ्गीकार करने के लिये अर्जुन को उपदेश । ... प्र. ७३८-७४६ । दसवाँ अध्याय-विभूतियोग । 9-३ यह जान लेने से पाप का नाश होता है कि अजन्मा परमेश्वर देवताओं से और ऋपियों से भी पूर्व का है। ४-६ ईश्वरी विभूति और योग । ईश्वर से ही बुद्धि प्रादि भावों की, ससर्पियों की, और मनु की, एवं परम्परा से सब की, उत्पत्ति। ७-१६ इसे जाननेवाले भगवद्भक्तों को ज्ञान प्राप्तिः परन्तु उन्हें भी युद्धि-सिद्धि भगवान ही देते हैं । १२-१८ अपनी विभूति और योग यतलाने के लिये भगवान् से अर्जुन की प्रार्थना । १६-४० भगवान् की अनन्त विभूतियों में से मुख्य मुख्य विभूतियों का वर्णन । ४१, ४२ जो कुछ विभूतिमत्, श्रीमत् और अर्जित है, वह सब परमेश्वरी तेज है। परन्तु अंश से है। ... पृ०७५०-७६। ग्यारहवाँ अध्याय-विश्वरूप-दर्शन योग। १-४ पूर्व अध्याय में बतलाये हुए अपने ईश्वरी रूप को दिखजाने के लिये भगवान से प्रार्थना । ५-८ इस आश्चर्यकारक और दिव्य रूप को देखने के लिये, मर्जुन को दिव्यदृष्टि-ज्ञान 18-१४ विश्वरूप का सञ्जय-कृत वर्णन । १५-३१ विस्मय और भय से नन्न होकर अर्जुन कृत विश्वरूप-स्तुति, और यह प्रार्थना किप्रसन्न हो कर यतलाइये कि 'आप कौन हैं।। ३२-३४ पहले यह बतला कर कि मैं काल हूँ' फिर अर्जुन को उत्साहजनक ऐसा उपदेश कि पूर्व से ही इस काल के द्वारा असे हुए वीरों को तुम निमित्त बन कर मारो । ३५-४६ अर्जुनकृत स्तुति, चमा प्रार्थना और पहले का सौम्य रूप दिखलाने के लिये विनय । ४७-५५ बिना अनन्य भक्ति के विश्वरूप का दर्शन मिलना दुर्लभ है। फिर पूर्वस्वरूप-धारण । ५२-५४ मिना भक्ति के विश्वरूप का दर्शन देवताओं को भी नहीं हो सकता। ५५ अतः भक्ति से निस्सङ्ग और निर होकर परमेश्वरार्पण बुद्धि के द्वारा कर्म करने के विषय में अर्जुन को सर्वार्थसारभूत अन्तिम उपदेश !... ...पृ०७६२-७७३। बारहवाँ अध्याय-भक्तियोग । १ पिछले अध्याय के, अन्तिम सारभूत, उपदेश पर अर्जुन का प्रश्न-व्यक्तो- पासना श्रेष्ठ है या अध्यक्तोपासना? २-८ दोनों में गति एक ही है परन्तु अध्यक्तो- पासना केशकारक है,और व्यक्तोपासना सुलभ एवं शीघ्र फलप्रद है। अतः निष्काम- कर्मपूर्वक व्यक्तोपासना करने के विषय में उपदेश । ६-१२ भगवान् में चित्त को स्थिर करने का अभ्यास, ज्ञान-ध्यान इत्यादि उपाय, और इनमें कर्मफल-त्याग की श्रेष्ठता । १३-१६ भक्तिमान् पुरुष की स्थिति का वर्णन और भगवत्
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६४२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।