विषयप्रवेश। २७ का कर्म से नित्य सम्बन्ध बतलाना एक बड़ा भारी पाप है। यही शंका एक टीकाकार . के मन में हुई थी और उसने लिखा था कि स्वयं श्रीकृष्ण के चरित्र को आँख के सामने रख कर भगवद्गीता का अर्थ करना चाहिये । श्रीक्षेत्र काशी के सुप्रसिद्ध अद्वैती परमहंस श्रीकृष्णानन्द स्वामी का, जो अभी हाल ही में समाधिस्थ हुए हैं। भगवद्गीता पर लिखा हुआ 'गीता-परामर्श' नामक संस्कृत में एक नियंध है। उसमें स्पष्ट शति से यही सिद्धान्त लिखा हुआ है कि " तस्मात् गीता नाम प्रभाविद्यामूलं नीतिशास्त्रम्" अर्थात-इसलिये गीता वह नीतिशास्त्र अथवा कर्तव्यधर्मशास है जो कि ग्रामविया से सिद्ध होता है। यही यात जर्मन पंडित प्रो. डॉयसेन ने पपने ' उपनिपदों का तत्वज्ञान ' नामक ग्रन्थ में कही है। इनके अतिरिक्त पश्चिमी और पूर्वी गीता-परीक्षक अनेक विद्वानों का भी यही मत है । तथापि इनमें से किसी ने समस्त गीता-अन्य की परीक्षा करके यह स्पष्टतया दिखलाने का प्रयत्न नहीं किया है कि, कर्मप्रधान दृष्टि से उसके सब विपयों और अध्यायों का मेल कैसे है। बल्कि टॉयसेन ने अपने ग्रंथ में कहा है कि यह प्रतिपादन कष्टसाध्य है। इसलिये प्रस्तुत अन्य का मुख्य उद्देश यही है कि उक्त रीति से गीता की परीक्षा करके उसके विपयों का मेल अच्छी तरह प्रकट कर दिया जावे । परन्तु ऐसा करने के पहले, गीता के भारम्भ में परस्पर विरुद्ध नीतिधर्मों के झगड़े हुए अर्जुन पर जो संकट आया था उसका असली रूप भी दिखलाना चाहिये, नहीं तो गीता में प्रतिपादित विषयों का मर्म पाठकों के ध्यान में पूर्णतया नहीं जम सकेगा। इसलिये अव, यह जानने के लिये कि कर्म-अकर्म के झगड़े कैसे विकट होते हैं और अनेक बार " इसे करूं कि इसे " यह सूझ न पड़ने के कारण मनुष्य कैसा घबड़ा उठता है, ऐसे ही प्रसंगों के अनेक उदाहरणों का विचार किया जायगा जो हमारे शास्त्रों में विशे- पतः महाभारत में,-पाये जाते हैं। इस टीकाकार का नाम और उसकी टीका के कुछ अवतरण, बहुत दिन हुए एक महाशय ने हमको पत्र द्वारा बतलाये थे। परन्तु हमारी परिस्थिति की गड़बड़ में वह पत्र न जाने कहाँ खो गया। fश्रीकृष्णानन्दस्वामीकृत चारों निबंध (श्रीगीतारहस्य, गीतार्थप्रकाश, गीतार्थपरामर्श और गीतासारोद्धार) एकत्र कर के राजकोट में प्रकाशित किये गये है। Prof. Dousson's Philosophy of the Upanishads. p. 362, (English Translation, 1906. ) .
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