२६४ गीतारहत्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । कर्ममार्ग, जनक आदि का ज्ञानयुक्त कर्मयोग (नैकार्य), उपनिषत्कारों तथा सांख्यों की ज्ञाननिष्ठा और संन्यास, चित्तनिरोधरूपी पातंजलयोग, एवं पाचरान वा भागवतधर्म अर्यात भक्ति ये सभी धार्मिक अङ्ग और तत्व मूल में प्राचीन वैदिक धर्म के ही हैं। इनमें से ब्रह्मज्ञान, कर्म और भक्ति को छोड़ कर, चित्तनिरोधरूप योग तथा कर्मसंन्यास इन्हीं दोनों तत्वों के आधार पर बुद्ध ने पहले पहल अपने संन्यास-प्रधान धर्म का उपदेश चारों वणों को किया था, परन्तु आगे चल कर उसी में भक्ति तथा निष्काम कर्म को मिला कर युद्ध के अनुयायियों ने उसके धर्म का चारों मोर प्रसार किया । अशोक के समय बौद्धधर्म का इस प्रकार प्रचार हो जाने के पश्चात् शुद्ध कर्म-प्रधान यहूदी धर्म में संन्यास मार्ग के तत्वों का प्रवेश होना प्रारम्भ हुमा भौर भन्त में, उसी में भक्ति को मिला कर ईसा ने अपना धर्म प्रवृत्त किया। इतिहास से निष्पन्न होनेवाली इस परम्परा पर दृष्टि देने से, डाक्टर लारिनसर का यह कथन तो असत्य सिद्ध होता ही है कि गीता में ईसाई धर्म से कुछ बातें जी गई है, किन्तु इसके विपरीत, यह यात अधिक सम्भव ही नहीं बल्कि विश्वास करने योग्य भी है कि, आत्मौपम्यदृष्टि, संन्यास, निवैरत्व तथा भक्ति के जो तत्व नई बाइबल में पाये जाते हैं, वे ईसाई धर्म में बौद्धधर्म से-मर्थात् परम्परा से वैदिकधर्म से- लिये गये होंगे । और यह पूर्णतया सिद्ध हो जाता है कि इसके लिये हिन्दुओं को. दूसरों का मुँह ताकने की, कमी भावश्यकता थी ही नहीं। इस प्रकार, इस प्रकरण के प्रारम्भ में दिये हुए सात प्रभा का विवेचन हो चुका। अब इन्हीं के साथ महत्व के कुछ ऐसे प्रश्न होते हैं कि, हिन्दुस्थान में जो भक्ति पन्य भाजकल प्रचलित हैं उन पर, भगवद्वीता का क्या परिणाम हुमा है? परन्तु इन प्रश्नों को गीता-अन्ध-सम्बन्धी कहने की अपेक्षा यही कहना ठीक है कि ये हिन्दूधर्म के अर्वाचीन इतिक्षास से सम्बन्ध रखते हैं इसलिये, और विशेषतः यह परिशिष्ट प्रकरण घोड़ा घोड़ा करने पर भी हमारे अंदाज से अधिक बढ़ गया है इस. लिये, अब यहीं पर गीता की वहिरंग परीक्षा समाप्त की जाती है।
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