गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट। में यहूदी नहीं है, किन्तु खाल्दी भाषा के ' यवे' (संस्कृत यह्न) शब्द से निकला. है। यहूदी लोग मूर्तिपूजक नहीं हैं। उनके धर्म का मुख्य आचार यह है कि प्रति में पशु या अन्य वस्तुओं का हवन करे; ईश्वर के बतलाये हुए नियमों का पालन करके जिहोवा को सन्तुष्ट करे और उसके द्वारा इस लोक में अपना तथा अपनी जाति का कल्याण प्राप्त करे । अर्थात् संक्षेप में कहा जा सकता है कि वैदिकधर्मीय कर्मकांड के अनुसार यहूदी-धर्म भी यज्ञमय तथा प्रवृत्ति प्रधान है। इसके विरुद्ध ईसा का अनेक स्थानों पर उपदेश है कि मुझे (हिंसाकारक) यज्ञ नहीं चाहिये, मैं (ईश्वर की) कृपा चाहता हूँ' (मैथ्यू. ६.१३), 'ईश्वर तथा द्रव्य दोनों को साध लेना सम्भव नहीं (मैथ्यू. ६. २४), 'जिसे अमृतत्व की प्राप्ति कर लेनी हो उसे, बाल-बच्चे छोड़ करके मेरा मक्क होना चाहिये । (मैथ्यू. १६. २१); और जब उसने शिष्यों को धर्मप्रचारार्थ देश-विदेश में भेजा तब, संन्यासधर्म के इन नियमों का पालन करने के लिये उनको उपदेश क्रिया कि “ तुम अपने पास सोना- चाँदी तथा बहुत से वस्त्र-प्रावरण मी न रखना" (मैथ्यू. १०..६-१३) । यह सच है कि अर्वाचीन ईसाई राष्ट्रों ने ईसा के इन सब उपदेशों को लपेट कर ताक में रखा दिया है। परन्तु जिस प्रकार आधुनिक शंकराचार्य के साथी-घोड़े रखने से, शांकर सम्प्रदाय दरवारी नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार अर्वाचीन ईसाई राष्ट्रों के इस आचरण से मूल ईसाईधर्म के विषय में भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह धर्म भी प्रवृत्ति प्रधान था । मूल वैदिक धर्म के कर्मकांडात्मक होने पर भी जिस प्रकार उसमें आगे चल कर ज्ञानकांड का उदय हो गया, उसी प्रकार यहूदी तथा ईसाई धर्म का भी सम्बन्ध है । परन्तु वैदिक कर्मकांड में क्रमशः ज्ञानकांड की और फिर भकि-प्रधान भागवतधर्म की उत्पत्ति एवं वृद्धि सैकड़ों वर्षों तक होती रही है किन्तु यह बात ईसाई धर्म में नहीं है। इतिहास से पता चलता है कि ईसा के, भाधिक से अधिक, लगभग दो सौ वर्ष पहले एसी या एसीन नामक संन्यासियों का पन्थ यहूदियों के देश में एकाएक आविर्भूत हुआ था । ये एसी लोग थे तो यहूदी धर्म के ही, परन्तु हिंसात्मक यज्ञ-याग को छोड़ कर ये अपना समय किसी शान्त स्थान में बैठ परमेश्वर के चिन्तन में विताया करते, और उदर-पोषणार्य कुछ करना पड़ा तो खेती के समान निरुपद्रवी व्यवसाय किया करते थे। कार रहना, मद्य-माँस से परहेज रखना, हिंसा न करना, शपथ न खाना, संघ के साथ मठ में रहना और जो किसी को कुछ द्रव्य मिल जाय तो उसे पूरे संघ की सामाजिक मामदनी समझना भादि, उनके पन्ध के मुख्य तत्त्व थे। जब कोई उस मंडल्ली में प्रवेश करना चाहता था, तब उसे तीन वर्ष तक उम्मेदवारी करके फिर कुछ शर्ते मंजूर करनी पड़ती थीं । उनका प्रधान मठ मृतसमुद्र के पश्चिमी किनारे पर ऍगदी में था वहीं पर वे सन्यासवृत्ति से शांतिपूर्वक रहा करते थे । स्वयं ईसा ने तपा उसके शिष्यों ने नई बाइबल में एसी पंप के मतों का जो मान्यतापूर्वक निर्देश किया है (मैथ्यू. ५.३४, १६.२; जेम्स. ५.१२७ कृत्य. १.३२-३५), उससे देख
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