पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६२२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाग ६-गीता और बाद्ध ग्रंथ । ५५३ प्रधान स्वरूप का प्राप्त होना प्रारम्भ हो गया था। बाद यति नागार्जुन इस पन्य का मुख्य पुरस्कर्ता या नकि मूल उत्पादक। मह या परमात्मा के अस्तित्व को न मान कर, उपनिपदों के मतानुसार, केवल मन को निर्षिपय करनेवाले निवृत्तिमार्ग के स्वीकारकर्ता मूल निरीश्वरवादी बुद्ध- धर्म ही में से, यह कय सम्भव था कि, साग क्रमशः स्वाभाविक रीति से भक्ति प्रधान प्रवृत्तिमार्ग निकल पड़ेगा; इसलिये युद्ध का निर्माण हो जाने पर बौद्धधर्म को शीघ्र ही जो यह फर्म-प्रधान भक्तिस्वरूप प्राप्त हो गया, इससे प्रगट होता है कि इसके लिये बौधर्म के बाहर का तत्कालीन कोई न कोई अन्य कारण निमित्त शुभा होगा और इस कारण को हूँढ़ते समय भगवद्गीता पर दृष्टि पहुंचे विना नहीं रहती। क्योंकि जैसा हमने गीतारहस्य के ग्यारहवें प्रकरण में स्पष्टीकरण कर दिया है-हिन्दुस्थान में, तत्कालीन प्रचलित धर्मों में से जैन तथा उपनिपद-धर्म पूर्णतया निवृत्ति प्रधान ही थे और वैदिकधर्म के पाशुपत अथवा शैव आदि पन्थ यपि भत्ति प्रधान ये तो सही, पर प्रवृत्तिमार्ग और भक्ति का मैल भगवद्गीता के अतिरिक्त अन्यन्न कहीं भी नहीं पाया जाता था। गीता में भगवान ने अपने लिये पुरुषोत्तम नाम का उपयोग किया है और ये विचार भगवद्गीता में ही पाये हैं कि "मैं पुरुषोत्तम ही सब लोगों का 'पिता' और 'पितामह' हूँ (६. १७); सब को 'सम' हूँ, मुझे न तो कोई द्वेष्य ही है और न कोई प्रिय (६. २९); मैं यधपि अज और अव्यय हूँ तथापि धर्मसंरक्षणार्थ समय समय पर अवतार लेता हूँ (४.६-८); मनुष्य कितना ही दुराचारी क्यों न हो, पर मेरा भजन करने से वह साधु हो जाता है (६.३०), अथवा मुझे भक्तिपूर्वक एक-आध फूल, पत्ता था थोड़ा सा पानी अर्पण कर देने से भी मैं उसे बड़े ही संतोषपूर्वक ग्रहण करता हूँ (६. २६); और प्रश लोगों के लिये भक्ति एक सुलभ मार्ग है ( १२.५); इत्यादि । इसी प्रकार इस तस्य का विस्तृत प्रतिपादन गीता के अतिरिक्त कहीं भी नहीं किया गया है, कि ब्रह्मनिष्ठ पुरुष लोकसंग्रहार्थ प्रवृत्तिधर्म ही को स्वीकार करे । अतएव यह अनुमान करना पड़ता है, कि जिस प्रकार मूल धर्म में वासना के क्षय करने का निरा निवृत्ति प्रधान मार्ग उपनिषदों से लिया गया है, उसी प्रकार जव महायान पंप निकला, तब उसमें प्रवृत्ति-प्रधान भक्तितत्व भी भगवद्गीता ही से लिया गया होगा । परन्तु यह बात कुछ अनुमानों पर ही अवलंबित नहीं है। तिव्यती भाषा में बौद्धधर्म के इतिहास पर बौद्ध. धर्मी तारानाथ लिखित जो ग्रंथ है, उसमें स्पष्ट लिखा है कि महायान पंथ के मुख्य पुरस्कर्ता का अर्थात् “ नागार्जुन का गुरु राहुलभद्र नामक घौद्ध पहले घामण था, और इस मामण को (महायान पंथ की ) कल्पना सूझ पड़ने के लिये ज्ञानी श्रीकृप्या तथा गगोश कारण हुए"। इसके सिवा, एक दूसरे तिब्बती ग्रंथ में भी यही उल्लेख पाया जाता है । यह सच है कि, तारानाथ का ग्रंथ प्राचीन नहीं है,

  • Sco Dr. Korn's Janual of Indian Buddhism, p. 122. "Ho