भाग गीता और बौद्ध ग्रंथ। ५८१ रहता है। इसी प्रकार यौद्ध ग्रंथों में यह प्रतिपादन किया जाने लगा, कि असली घुद्ध "सारे जगत का पिता है और जन-समूह उसकी सन्तान हैं " इस- लिये वह सभी को "समान है, न वह किसी पर प्रेम ही करता है और न किसी से द्वेप ही करता है, ""धर्म की व्यवस्था विगड़ने पर वह 'धर्मकृत्य ' के लिये ही समय समय पर बुद्ध के रूप से प्रगट हुआ करता है," और इस देवादि देय बुद्ध की भक्ति करने से, उसके अंघों की पूजा करने से और उसके दागोवा के सन्मुख कीर्तन करने से," अथवा " उसे भक्तिपूर्वक दो चार कमल या एक फूल समर्पण कर देने ही से " मनुष्य को सद्गति प्राप्त होती है (सद्धर्मपुंडरीक. २. ७७-६८, ५. २२, १५.५-२२ और मिलिन्दप्रश्न. ३.७.७ देखो) 1 मिलिन्द- प्रश्न (३.७.२) में यह भी कहा है कि " किसी मनुष्य की सारी उन दुराचरणों में क्यों न बीत गई हो, परन्तु मृत्यु के समय यदि वह युद्ध की शरण में जावे तो उसे स्वर्ग की प्राप्ति अवश्य होगी, और सद्धर्मपुंदरीक के दूसरे तथा तीसरे अध्याय में इस बात का विस्तृत वर्णन है, कि सय लोगों का “ अधिकार, स्वभाव तथा शान एक ही प्रकार का नहीं होता इसलिये अनात्मपर निवृत्ति प्रधान मार्ग के अतिरिक भक्ति के इस मार्ग (यान) को बुद्ध ने दया करके अपनी उपायचातुरी' से निर्मित किया है। स्थर्य युद्ध के यतलाये हुए इस तत्व को एकदम छोड़ देना कभी भी सम्भव नहीं था कि, निर्वाण पद की प्राप्ति होने के लिये भिक्षुधर्म ही को स्वीकार करना चाहिये। क्योंकि यदि ऐसा किया जाता तो मानों युद्ध के मूल उपदेश पर ही हरताल फेरा जाता । परन्तु यह कहना कुछ अनुचित नहीं था, कि मित हो गया तो क्या हुआ, उसे जंगल में गेंडे' के समान अकेले तथा उदासीन न बना रहना चाहिये किन्तु धर्मप्रसार आदि लोकहित तथा परोपकार के काम निरिसित ' पुद्धि से करते जाना ही बौद्ध भिक्षुओं का कर्तव्य । है इसी मत का प्रतिपादन महायान पन्य के सन्दर्मपुंडरीक आदि ग्रंथों में किया गया है। और नाग. सेन ने मिलिन्द से कहा है, कि " गृहस्थाश्रम में रहते हुए निर्वाण पद को पा लेना बिलकुल अशक्य नहीं है और इसके कितने ही उदाहरण भी है" (मि. प्र.६. २.४)। यह यात किसी के भी ध्यान में सहज ही आ जायगी, कि ये विचार अनात्मवादी तथा फेवल संन्यास-प्रधान मूल बौद्धधर्म के नहीं हैं, अथवा शून्य- वाद या विज्ञान-वाद को स्वीकार करके भी इनकी उपपत्ति नहीं जानी जा सकती और पहले पहल अधिकांश बौद्ध धर्मवालों को स्वयं मालूम पड़ता था कि ये
- प्राज्यधर्मपुस्तकमाला के २१ वें खंड में सद्धर्मपुंडरीक ग्रंथ का अनुवाद प्रकाशित
हुआ है । यह प्रेथ संस्कृत भाषा का है । अब मूल संस्कृत ग्रंथ भी प्रकाशित हो चुका है। सुत्तनिपात में खग्गविसाणसुत्त के ४१ वें श्लोक का भुवपद " एको चरे खग्गविताण कपो है। उसका यह अर्थ है कि खगविसाण यानी गेंडा और उसी के समान बौद्ध भिक्षु को जंगल में अकेला रहना चाहिये ।