गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । निवृत्ति प्रधान है । परन्तु उसका यह स्वरूप बहुत दिनों तक टिक न सका। मितुओं के आचरण के विषय में मतभेद हो गया और बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् उसमें अनेक उपपन्यों का ही निर्माण नहीं होने लगा, किन्तु धार्मिक तत्त्वज्ञान के विषय में भी इसी प्रकार का मतभेद उपस्थित हो गया । आजकल कुछ लोग तो यह भी कहने लगे हैं, कि आत्मा नहीं है' इस कथन के द्वारा बुद्ध को मन से यही बतलाना है, कि "अचिन्य आत्मज्ञान के शुष्कवाद में मत पड़ो; वैराग्य तथा अभ्यास के द्वारा मन को निष्काम करने का प्रयत्न पहले करो, आत्मा हो चाहे न हो; मन के निग्रह करने का कार्य मुख्य है और उसे सिद्ध करने का प्रयत्न पहने करना चाहिये;" उनके कहने का यह मतलब नहीं है, कि ब्रह्म या आत्मा विलकुल है ही नहीं। क्योंकि, तेविजसुत्त में स्वयं बुद्ध ने ब्रह्मसहन्यताय स्थिति का उल्लेख किया है और सैलसुत्त तथा थेरगाथा में उन्होंने स्वयं कहा है कि "मैं ब्रह्मभूत हूँ" (सेलसु. १, परगा. ८३१ देखो)। परन्तु मूल हेतु चाहे जो हो, यह निर्विवाद है कि ऐसे अनेक प्रकार के मत, वाद तथा आग्रही पन्य तत्त्व. ज्ञान की दृष्टि से निर्मित हो गये जो कहते थे कि " प्रात्मा या ब्रह्म में से कोई भी नित्य वस्तु जगत् के मूल में नहीं है, जो कुछ देख पड़ता है वह क्षणिक या शून्य है," अथवा "जो कुछ देख पड़ता है वह ज्ञान है, ज्ञान के अतिरिक जगत् में कुछ मी नहीं है," इत्यादि (वैसू-शां मा. २. २. १८-२६ देखो)। इस निरीश्वर तथा मनात्मवादी बाद मत को ही क्षणिक-वाद, शून्य-वाद और विज्ञान-बाद कहते है। यहाँ पर इन सब पन्यों के विचार करने का कोई प्रयोजन नहीं है । हमारा प्रश्न ऐतिहासिक है। अतएवं उसका निर्णय करने के लिये 'महायान' नामक पथ का वर्णन, जितना आवश्यक है उतना, यहाँ पर किया जाता है । बुद्ध के मूल उपदेश में प्रात्मा या ब्रह्म (अर्थात् परमात्मा या परमेश्वर)का अस्तित्व ही अमाहा अथवा गौण माना गया है, इसलिये स्वयं बुद्ध की उपस्थिति में भक्ति के द्वारा पर- मेश्वर की प्राप्ति करने के मार्ग का उपदेश किया जाना सम्भव नहीं था; और लव तक बुद्ध की भव्य मूर्ति एवं चरित्र-कम लोगों के सामने प्रत्यक्ष रीति से उपस्थित था तब तक उस मार्ग की कुछ आवश्यकता ही नहीं थी । परन्तु फिर यह आवश्यक हो गया कि यह धर्म सामान्य जनों को प्रिय हो और इसका अधिक प्रसार भी होवे। अतः घर-बार छोड़, मिनु बन करके मनोनिग्रह से बैठे विडाये निर्वाण पाने- यह न समझ कर कि किस में? के इस निरीश्वर निवृत्तिमार्ग की अपेक्षा किसी सरल और प्रत्यक्ष मार्ग की आवश्यकता हुई। बहुत सम्भव है कि साधारण वुद्ध- भक्तों ने तत्कालीन प्रचलित वैदिक भक्ति-मार्ग का अनुकरण करके, बुद्ध की उपा- सना का आरम्म पहले पहल स्वयं कर दिया हो । अतएव बुद्ध के निर्वाण पाने के पश्चात् शीघ्र ही बौद्ध पंडितों ने वुद ही को "स्वयंभू तथा अनादि अनन्त पुरु- घोत्तम" का रूप दे दिया और वे कहने लगे, कि चुद का निवाण होना तो उन्हीं की लीला है, "असली बुद्ध का कमी नाश नहीं होता-वह तो सदैव ही अचल -
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