पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६१६

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भाग ६-गीता और बौद्ध ग्रंथ । के उधारण द्वारा उक्त तीनों की शरण में जाय उसको, यौद्ध ग्रंथों में, उपासक कहा है। यही लोग याद्ध धर्मावलंयी गृहस्प है ।प्रसंग प्रसंग पर स्वयं बुद्ध ने कुछ स्थानों पर उपदेश किया है कि उन उपासकों को अपना गाईध्य व्यवहार कैसा रखना चाहिये (महापरिनिव्यागासुत्त १.२४) पैदिक गाईस्थ्यधर्म में से हिंसात्मक श्रौत यज्ञ-याग और चारों यौँ का भेद युद्ध को माल नहीं था। इन बातों को छोड़ देने से स्मात पचमहायज्ञ, दान आदि परोपकारक धर्म और नीतिपूर्वक प्राचरण करना ही गृहस्थ का कर्तव्य रह जाता है तथा गृहस्यों के धर्म का वर्णन करते समय फेवल इन्हीं पातों का उल्लेख यौद्ध ग्रंथों में पाया जाता है। युद्ध का मत है कि प्रत्येक गृहस्य अर्थात् उपासक को पचमहायज्ञ करना ही चाहिये । उनका स्पष्ट कथन है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, सर्वभूतानुकंपा और (आत्मा मान्य न हो, तथापि ) आत्मौपम्यदृष्टि, शौच या मन की पवित्रता, तथा विशेष करके सत्पात्रों यानी बौद्ध भिक्षुओं को एवं बौद्ध भिक्षु-संघों को अन्न-वस्त्र प्रादि का दान देना प्रभृति नीतिधर्मों का पालन बौद्ध उपासकों को करना चाहिये। बौद्ध धर्म में इसी को 'शील' कहा है, और दोनों की तुलना करने से यह यात स्पष्ट हो जाती है, कि पंचमहायज्ञ के समान ये नीति धर्म भी ब्राह्मणधर्म के धर्मसूत्रों तथा प्राचीन स्मृति-ग्रंथों से (मनु. ६. ६२ और १०, ६३ देखो) बुद्ध ने लिये हैं। और तो क्या, इस प्राचरण के विषय में प्राचीन माह्मणों की स्तुति स्वयं बुद्ध ने प्रामणधम्मिकसुत्तों में की है तथा मनुस्मृति के कुछ श्लोक तो धम्मपद में अक्ष- रशः पाये जाते हैं (मनु. २. १२१ और ५.४५ तथा धम्मपद १०६ और १३३ देखो)। बौद्धधर्म में वैदिक ग्रंथों से न केवल पञ्चमहायज्ञ और नीतिधर्म ही लिये गये हैं, किन्तु वैदिक धर्म में पहले कुछ उपनिपस्कारों द्वारा प्रतिपादित इस मत को भी बुद्ध ने स्वीकार किया है, कि गृहस्थाश्रम में पूर्ण मोक्षप्राति कभी भी नहीं होती । उदाहरणार्थ, सुत्तनिपातों के धम्मिकसुत्त में मितु के साथ उपासक की तुलना करके घुटने साफ साफ कह दिया है, कि गृहस्थ को उत्तम शील के द्वारा बहुत हुआ तो 'स्वयंप्रकाश ' देवलोक की प्राप्ति हो जावेगी, परन्तु जन्म-मरण के चकर से पूर्णतया छुटकारा पाने के लिये संसार तथा लड़के-बशे- स्त्री आदि को छोड़ करके अंत में उसको भिक्षुधर्म ही स्वीकार करना चाहिये (धम्मिकसुत्त. १७. २८; और यू. ४. ४.६ तथा म. भा. वन. २. ६३ देखो)। तेविजसुत्त (१.३५, ३. ५) में यह वर्णन है कि कर्ममार्गीय वैदिक ब्रामणों से वाद करते समय अपने उक्त संन्यास-प्रधान मत को सिद्ध करने के लिये बुद्ध ऐसी युक्तियाँ पेश किया करते थे कि " यदि तुम्हारे ब्रह्म के बाल-बच्चे तथा क्रोध- लोभ नहीं हैं, तो स्त्री-पुत्रों में रह कर तथा यज्ञ-याग आदि काम्य कर्मों के द्वारा Seo Dr. Korn's Viral of Buddhism (Grundriss III. 8) p. 68. गी.र. ५३.