. गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । 'विमनस्क' हो कर संन्यास लेने को तैयार हो गया; तभी उसे अपने क्षात्रधर्म में प्रवृत्त करने के लिये भगवान् ने गीता का उपदेश दिया है । जब अर्जुन यह देखने लगा कि दुष्ट दुर्योधन के सहायक वन कर मुझसे लड़ाई करने के लिये कौन कौन से शूरवीर यहाँ आये हैं। तव वृद्ध भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, गुरुपुत्र अश्वत्थामा, विपक्षी बने हुए अपने बंधु कौरव-गण, अन्य सुहृत तथा प्राप्त, मामा- काका आदि रिश्तेदार, अनेक राजे और राजपुत्र आदि सब लोग उसे देख पड़े। तव वह मन में सोचने लगा कि इन सब को केवल एक छोटे से हस्तिनापुर के राज्य के लिये निर्दयता से मारना पड़ेगा और अपने कुल का क्षय करना पड़ेगा। इस महत्पाप के भय से उसका मन एकदम दुःखित और क्षुब्ध हो गया । एक ओर तो क्षात्रधर्म इससे कह रहा था कि 'युद्ध कर'; और, दूसरी ओर से पितृमक्ति, गुरुभक्ति, बंधुप्रेम, सुहृत्प्रीति प्रादि अनेक धर्म उसे जबर्दस्ती से पीछे खींच रहे थे ! यह बड़ा भारी संकट था । यदि लड़ाई, करें तो अपने ही रिश्तेदारों की, गुरुजनों की और बंधु-मित्रों की, इत्या करके महापातक के भागी बनें ! छोर लड़ाई न करें तो क्षात्रधर्म से च्युत होना पड़े!! इधर देखो तो फुयाँ और उधर देखो तो खाई!!! उस समय अर्जुन की अवस्था चैसी ही हो गई थी जैसी ज़ोर से टकराती हुई दो रेलगाडियों के बीच में, किसी असहाय मनुष्य की हो जाती है । यद्यपि अर्जुन कोई साधारण पुरुप नहीं था-वह एक बढ़ा भारी योद्धा था; तथापि धर्माधर्म के इस महान संकट में पड़ कर बेचारे का मुँह सूख गया, शरीर पर रॉगटे खड़े हो गये, धनुप हाथ से गिर पड़ा और वह "मैं नहीं लहूंगा" कह कर अति दुःखित चित्त से रथ में बैठ गया! और, अंत में, समीप- वर्ती बंधुस्नेह का प्रभाव-उस ममत्व का प्रभाव जो मनुष्य को स्वभावतः प्रिय होता है-दूरवर्ती क्षत्रियधर्म पर जम ही गया! तव वह मोहवश हो कहने लगा " पिता-सम पूज्य वृद्ध और गुरुजनों को, भाई-बन्धुओं और मित्रों को मार कर तथा अपने कुल का क्षय करके (घोर पाप करके) राज्य का एक टुकड़ा पाने से तो टुकड़े मांग कर जीवन निर्वाह करना कहीं श्रेयस्कर है ! चाहे मेरे शत्रु मुझे अभी निःशस्त्र देख कर मेरी गर्दन उड़ा दें परन्तु मैं अपने स्वजनों की हत्या करके उनके खून और शाप से सने हुए सुखों का उपभोग नहीं करना चाहता! फ्या क्षात्रधर्म इसी को कहते हैं ? भाई को मारो, गुरु की हत्या करो, पितृवध करने से न चूको, अपने कुल का नाश करो क्या यही चानधर्म है? आग लगे ऐसे अनर्थकारी ज्ञानधर्म में और गाज गिरे ऐसी क्षात्रनीति पर! मेरे दुश्मनों को ये सच धर्मसंबंधी यात मालूम नहीं हैं। चे दुष्ट है तो क्या उनके साथ में भी पापी हो जाऊं? कभी नहीं। मुझे यह देखना चाहिये कि मेरे मात्मा का कल्याण कैसे होगा। मुझे तो यह घोर हत्या और पाप करना श्रेयस्कर नहीं जंचता; फिर चाहे क्षात्र- धर्म शास्त्रविहित हो, तो भी इस लमय सुझे उसकी आवश्यकता नहीं है।" इस प्रकार विचार करते करते उसका चित्त ढाँचाडोल हो गया और वह किंकर्तव्य- ।
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