पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६०७

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५६८ गीतारहस्य अवया कर्मयोग-परिशिष्ट । अव तक जिन प्रमाणों का उल्लेख किया गया है, वे सब वैदिक धर्म के ग्रंथों से लिये गये हैं। अब आगे चल कर जो प्रमाण दिया जायगा, वह वैदिक धर्मग्रंथों से मिन्न, अथात् चौद्ध साहित्य का है । इससे गीता की उपर्युक्त प्राचीनता स्वतन्त्र रीति से और भी अधिक दृढ़ तथा निःसन्दिग्ध हो जाती है । बौद्धधर्म के पहले ही मागवतधर्म का उदय हो गया था, इस विषय में वूलर और प्रसिद्ध फ्रेंच पंडित सेना के मतों का उल्लेख पहले हो चुका है तथा प्रस्तुत प्रकरण के अगले भाग में इन बातों का विवेचन स्वतन्त्र रीति से किया जायगा, कि बौद्ध धर्म की वृद्धि कैसे हुई, तथा हिन्दूधर्म से उसका क्या सम्बन्ध है । यहाँ केवल गीता-काल के सम्बन्ध में धी आवश्यक उल्लेख संलिप्त रूप से किया जायगा | भागवतधर्म बौद्ध धर्म के पहले का है, केवल इतना कह देने से ही इस बात का निश्चय नहीं किया जा सकता, कि गीता भी बुद्ध के पहले थी, क्योंकि यह कहने के लिये कोई प्रमाण नहीं है, कि भागवतधर्म के साथ ही साय गीता का भी उदय हुमा । अतएव यह देखना आवश्यक है, कि बौद्ध ग्रंथकारों ने गीया-ग्रंथ का स्पष्ट उल्लेख कहीं किया है या नहीं । प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि बुद्ध के समय चार वेद, वेदांग, व्याकरण, ज्योतिष, इतिहास, निबंटु धादि वैदिक धर्म-ग्रंथ प्रचलित हो चुके थे। श्रतएव इसमें सन्देह नहीं, कि बुद्ध के पहले ही वैदिक धर्म पूर्णावस्था में पहुंच चुका था । इसके बाद बुद्ध ने जो नया पंय चलाया, वह अध्यात्म की दृष्टि से अनात्मबादी था, परन्तु उसमें जैसा अगले माग में बतलाया जायगा-याचरणदृष्टि से उपनिपदों के संन्यास-मार्ग ही का अनुकरण किया गया था। अशोक के समय बौद्धधर्म की यह दशा बदल गई थी। बौद्ध मिनुमा ने जंगलों में रहना छोड़ दिया था । धर्मप्रसारायं तया परोपकार का काम करने के लिये वे लोग पूर्व की ओर चीन में, और पश्चिम की भोर अलेक्जेंड्रिया तथा प्रति तक चले गये थे । बौद्ध धर्म के इतिहास में यह एक अत्यन्त महत्व का प्रश्न है, कि जंगलों में रहना छोड़ कर, लोकसंग्रह का काम करने के लिये बौद्ध यात कैसे प्रवृत्त होगये ? बौद्धधर्म के प्राचीन ग्रंथों पर दृष्टि ढालिये । सुत्तनिपात के खग्गवि- साणसुत्त में कहा है, कि जिस मितु ने पूर्ण अहंतावस्या प्राप्त कर ली है, वह कोई मी काम न कर; केवल गैड़े के सश जंगल में निवास किया करे । और महावा (५.१.२०) में बुद्ध के शिष्य सोनकोलीविस की क्या में कहा है, कि " जो मिनु निबांगपद तक पहुँच चुका है उसके लिये न तो कोई काम ही अवशिष्ट रह जाता है और न किया हुआ कम ही मोगना पड़ता है-कतत्स परिचयो नत्य करणाय न विजाति'। यह शुद्ध संन्यास-मार्ग है और हमारे औपनिपदिक संन्याल-मान से इलका पूर्णतया मेल मिलता है । यह “करणीयं न विजाति, वाश्य गीता के इस " तस्य कार्य न विद्यते" वाक्य से केवल समानार्थक ही नहीं है, किन्तु शब्दशः भी एक ही है। परन्तु बौद्ध भिक्षुओं का जव यह मूल संन्यास- प्रधान आचार बदल गया और जब वे परोपकार के काम करने लगे, तब नये तथा