पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५९४

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भाग ४-भागवतधर्म का उदय और गीता। नारायणात्मकः " (मभा. शां. ३४७.८१)-अर्थात् नारायणीय अथवा, भागवत- धर्म प्रवृत्तिप्रधान या कर्मप्रधान है । नारायणाय या मूल भागवतधर्म का जो निष्काम प्रवृत्ति-तत्त्व है उसी का नाम नैष्कर्म्य है, और यही मूल भागवत- धर्म का मुख्य तत्व है । परन्तु, भागवतपुराण से यह बात देख पड़ती है, कि आगे कालान्तर में यह तत्व मंद होने लगा और इस धर्म में वैराग्य प्रधान वासु- देवमक्ति श्रेष्ठ मानी जाने लगी। नारदपञ्चरात्र में तो भक्ति के साथ ही साथ मन्त्र- तन्त्रों का भी समावेश भागवतधर्म में कर दिया गया है। तथापि, भागवत ही से यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि ये सब इस धर्म के मूल स्वरूप नहीं हैं । जहाँ नारायणीय अथवा सात्वतधर्म के विषय में कुछ कहने का मौका पाया है, वहाँ भागवत (१. ३. ८ और ११. ४.६) में ही यह कहा है, कि सात्वतधर्म या नारायण ऋषि का धर्म ( अर्थात् भागवतधर्म ) “ नैष्कर्म्यलक्षण" है। और आगे यह भी कहा है, कि इस नैष्कर्म्य-धर्म में भक्ति को उचित महत्त्व नहीं दिया गया था, इसलिये भक्ति प्रधान भागवतपुराण कहना पड़ा ( भाग. १. ५. १२)। इससे यह बात निर्विवाद सिद्ध होती है, कि मूल भागवतधर्म नैष्कर्म्य-प्रधान अर्थात् निष्कामकर्म-प्रधान था, किन्तु भागे समय के हेरफेर से उसका स्वरूप बदल कर वह भक्ति-प्रधान हो गया। गीतारहस्य में ऐसी ऐतिहासिक बातों का विवेचन पहले ही हो चुका है कि, ज्ञान तथा भक्ति से पराक्रम का सदैव मेल रखनेवाले मूल भागवतधर्म में और आश्रम-व्यवस्था-रूपी स्मात-मार्ग में क्या भेद है केवल संन्यास-प्रधान जैन और बौद्ध धर्म के प्रसार से भागवतधर्म के कर्मयोग की भवनति हो कर उसे दूसरा ही स्वरूप अर्थात् वैरगय-युक्त भक्तिस्वरूप कैसे प्राप्त हुआ और बौद्ध धर्म का न्हास होने के बाद जो वैदिक संप्रदाय प्रवृत्त हुए, उनमें से कुछ ने तो अंत में भगवद्गीता ही को संन्यास-प्रधान, कुछ ने केवल भक्ति-प्रधान तथा कुछ ने विशिष्टाद्वैत-प्रधान स्वरूप कैसे दे दिया। उपयुक्त संक्षिप्त विवेचन से यह बात समझ में भा जायगी, कि वैदिक धर्म के सनातन प्रवाह में भागवतधर्म का उदय कब हुमा, और पहले उसके प्रवृत्ति- प्रधान या कर्म प्रधान रहने पर भी आगे चल कर उसे भक्ति-प्रधान स्वरूप एवं अंत में रामानुजाचार्य के समय विशिष्टाद्वैती स्वरूप कैसे प्राप्त हो गया। मागवतधर्म के इन भिन्न भिन्न स्वरूपों में से जो मूलारंभ का अर्थात् निष्काम कर्म-प्रधान स्वरूप है, वही गीताधर्म का स्वरूप है। अब यहाँ पर संक्षेप में यह बतलाया जायगा, कि उक्त प्रकार की मूल-गीता के काल के विषय में क्या अनुमान किया जा सकता है। श्रीकृष्ण तथा भारतीय युद्ध का काल यद्यपि एक ही है, अर्थात् सन् ईसवी के पहले लगभग १४०० वर्ष है, तथापि यह नहीं कहा जा सकता, कि भागवतधर्म के ये दोनों प्रधान ग्रंथ-मूलगीता तथा मूलभारत - उसी समय रचे गये होंगे। किसी भी धर्म-पंथ का उदय होने पर तुरंत ही उस धर्म पर ग्रंथ रचे नहीं जाते । भारत तथा गीता के विषय में भी यही न्याय पर्याप्त होता है। वर्तमान महा