पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५९२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाग ४ भागवतधर्म का उदय और गीता। तथा सांस्यशास्त्र में वर्णित ज्ञान भी, भागवतधर्म के उदय के पहले ही प्रा. जित हो कर सर्वमान्य हो गया था। ऐसी अवस्था में यह कल्पना करना सर्वथा मनुचित है कि, उक्त ज्ञान तथा धमांगों की कुछ परवा न करके श्रीकृष्ण सरीले शानी और चतुर पुरुष ने अपना धर्म प्रवृत्त किया होगा, अथवा उनके प्रवृत्त करने पर भी यह धर्म तत्कालीन राजर्षियों तथा प्रार्षियों को मान्य हुमा होगा, और लोगों में उसका प्रसार हुआ होगा । ईसा ने अपने भक्ति-प्रधान धर्म का उपदेश पहले पहल जिन यहूदी लोगों को किया था, उनमें उस समय धार्मिक ता. ज्ञान का प्रसार नहीं हुआ था, इसलिये अपने धर्म का मेन तत्वज्ञान के साथ कर देने की उसे कोई मावश्यकता नहीं थी । केवल यह बतला देने से इंसाका धर्मोपदेश-संबंधी काम पूरा हो सकता था, कि पुरानी बाइबल में जिस समय धर्म का वर्णन किया गया है, हमारा यह भक्तिमार्ग भी उसी को लिये हुए है। और उसने प्रयत्न भी केवल इतना ही किया है। परन्तु ईसाई धर्म की इन बातों से भागवतधर्म के इतिहास की तुलना करते समय, यह ध्यान में रखना चाहिये, कि जिन लोगों में तथा जिस समय भागवतधर्म का प्रचार किया गया, उस समय के वे लोग केवल कर्ममार्ग ही से नहीं, किन्तु ग्रह्मज्ञान तथा कापिल सांख्यशास्त्र से भी परिचित हो गये थे और तीनों धमांगों की एकवाक्यता (मेल) करना भी वे लोग सीख चुके थे । ऐसे लोगों से यह कहना किसी प्रकार उचित नहीं हुआ होता, कि “तुम अपने कर्मकांद, या भोपनिषदिक और सांख्य ज्ञान को बोड़ दो, और केवल श्रद्धापूर्वक भागवतधर्म को स्वीकार कर लो।" मारा प्रादि वैदिक ग्रंथों में वार्णित और उस समय में प्रचलित यज्ञ-याग भादि कर्मों का फल क्या है? क्या उपनिषदों का या सांख्यशास्त्र का ज्ञान वृथा है? भक्ति भार चित्तनिरोधरूपी योग का मैल कैसे हो सकता है? इत्यादि उस समय स्वभावतः उपस्थित होनेवाले प्रश्नों का जब तक ठीक ठीक उत्तर न दिया जाता, तब तक भागवतधर्म का प्रचार होना भी संभव नहीं था । अतएव न्याय की दृष्टि से भव यही कहना पड़ेगा, कि भागवतधर्म में भारंभ ही से इन सब विषयों की चर्चा करना अत्यन्त आवश्यक था और महाभारतान्तर्गत नाराणीयोपाख्यान के देखने से भी यह सिद्धान्त हड़ हो जाता है। इस प्राण्यान में भागवतधर्म के साथ भोपनिषदिक ब्रह्मज्ञान का और सांख्य प्रतिपादित धराधर-विचार का मेल कर दिया गया है। और यह भी कहा है- चार वेद और सांण्य या योग, इन पाँचों का उसमें (भागवतधर्म) समावेश होता है इसलिये उसे पाचरावधर्म नाम प्राप्त हुआ है" (ममा. शां. ३३६. १०७); भार " वेदारण्यक साहित (अर्थात् उपनिषदों को भी ले कर) ये सब (शास्त्र) परस्पर एक दूसरे के अङ्ग हैं" (शां.३५८.८२), पाचरात्र शब्द की यह निरुक्त व्याकरण की दृष्टि से चाहे शुद्ध न हो, तपापि उससे यह बात स्पष्ट विदित हो जाती है, कि सब प्रकार के ज्ञान की एकवाक्यता भागवतधर्म में प्रारंभ ही से की गई थी। परन्तु, गी.र.७०