भाग ४ -- भागवतधर्म का उदय और गीता । के काल का निर्णय करने की इस रीति का प्रयोग उपनिपदों के विषय में किया गया हो । रामतापनी सरीखे भक्ति-प्रधान तथा योगतत्व सरीखे योग-प्रधान उपनिषदा की भाषा और रचना प्राचीन नहीं देख पड़ती-केवल इसी आधार पर कई लोगों ने यह अनुमान किया है, कि सभी उपनिषद प्राचीनता में बुद्ध की अपेक्षा चार पाँच सौ वर्ष से अधिक नहीं है। परन्तु काल-निर्णय की उपर्युक्त रीति से देखा जाय तो यह समझ श्रममूलक प्रतीत होगी। यह सच है, कि ज्योतिष की रीति से सब उपनिषदों का काल निश्चित नहीं किया जा सकता तथापि मुख्य मुख्य उपनिषदों का काल निश्चित करने के लिये इस रीति का बहुत अच्छा उपयोग किया जा सकता है। भाषा की दृष्टि से देखा जाय तो प्रो० मेक्समूलर का यह कथन है, कि मैन्युप- निपद पाणिनि से भी प्राचीन है क्योंकि इस उपनिपद में ऐसी कई शब्द-संधियों का प्रयोग किया गया है, जो सिर्फ मैत्रायणीसंहिता में ही पाई जाती हैं और जिनका प्रचार पाणिनि के समय बंद हो गया था (अर्यात जिन्हें छान्दर कहते हैं। परन्तु मैन्युपनिषद कुछ सब से पहला अर्थात् प्रति प्राचीन उपनिषद नहीं है । उसमें न केवल ब्रह्मज्ञान और सांख्य का मेल कर दिया है, किन्तु कई स्थानों पर छांदोग्य, वृहदारण्यक, तैत्तिरीय, कठ और ईशावास्य उपनिषदों के वाक्य तपा श्लोक भी उसमें प्रमाणार्थ उद्धृत किये गये हैं। हाँ, यह सच है, कि मैन्युपनिपदम स्पष्ट रूप से उक्त उपनिषदों के नाम नहीं दिये गये हैं। परन्तु इन वाक्यों के पहले ऐसे पर-वाक्यदर्शक पद रखे गये हैं, जैसे “ एवं वाह " या " उक्तं ध" (= ऐसा कहा है), इसी लिये इस विषय में कोई संदेह नहीं रह जाता, कि ये वाक्य दूसरे प्रन्यों से लिये गये हैं-स्वयं मैन्युपनिपत्कार के नहीं हैं। और अन्य उपनिषदों के देखने से सहज ही मालूम हो जाता है कि वे वचन कहाँ से उद्धत किये गये हैं। अब इस मैन्युपनिषद में कालरूपी अथवा संवत्सररूपी ब्रह्मा का विवेचन करते समय यह वर्णन पाया जाता है, कि " मघा नक्षत्र के आरम्भ से क्रमशः अविष्टा अर्थात धनिष्ठा नक्षत्र के आधे भाग पर पहुँचने तक (मवाधं श्रविष्ठाध) दक्षिणायन होता है और सार्प अर्थात् आश्लेषा नक्षत्र से विपरीत मम पूर्वक (अर्थात आश्लेषा, पुष्य, आदि क्रम से) पीछे गिनते हुए धनिष्ठा नक्षत्र के आधे भाग तक उत्तरायण होता है" (मैञ्यु. ६. १४) । इसमें सन्देह नहीं, कि उदगयन स्थिति-दर्शक ये वचन तत्कालीन उदगयन स्थिति को लक्ष्य करके ही कहे गये हैं और फिर उससे इस उपनिषद का कालनिर्णय भी गणित की रीति से सहज ही किया जा सकता है। परन्तु देख पड़ता है, कि किसी ने भी इसका इस दृष्टि से विचार नहीं किया है मैन्युपनिषद में वर्णित यह उदगयन स्थिति वेदांगज्योतिष में कही गई उदगयन स्थिति के पहले की है। क्योंकि वेदांगज्योतिष में यह बात स्पष्टरूप से कह दी गई है, कि उदगयन का आरम्भ धनिष्ठा नक्षत्र के प्रारम्भ से होता है, और मैन्युपनि- See Sacred Books of the East Series, Vol XY. Intro pp. xlviii-lii .
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