गीतारहस्य यवा कर्मयोग-परिशिष्ट! शान्त्र निर्मित हुन नकि-यवान ग्रंथ रचे गये। और, केवल नामदन कर्मयों का अवलोकन करने से नी रुष्ट ऋतंत्र होता है, कि ऑतिपदिक ज्ञान, यशात, विजनिकली योग आदि कमांड नागवतवन स्ट्य के पहले ही प्रचलित हो । सनय की मनमानी नीकी बने पर नी यही मानना पड़ता है, कि वेद के बाद और नापबन-बन के उदय के पहले, दक निय निद वनगा पाहुनांव व्या वृद्धि होने के लिय, बीच में कम से कम इस दाहजनक अवश्य दीत गये होगापरतु यदि यह माना वाय, कि भागवत श्रे श्रीमान करने होइन मेंअयान ईसा लगना ३० वर्ष पहल, प्रवृत्त किया होगा, जो नि नि बात की वृद्धि के लिये - पश्चिमी पंढनों के न्वानुवार छ नी सचिनाजाय नहॉरहनाजा क्योंकि पंडित लागअन्दैन कृत होके इंसाने पहले ५०० तया २०० वर्ष अधिक प्राचीन नहीं नान्त: ऐसी वस्ने उन्हें यह नारना पड़ता है, किसी या अविक अविक पांच छः सौ वर्ष के बाद ही नागवनंत्रालय हो गया! इसलिये उपयुंच कयनन्दुसार ञ्च निरर्थककरण दवा का लोग श्री और नागावनं समकालीनद्रा जो नहीं मानने और ऋछ पदिनी पंडित तो यह कहने के लिये भी उग्रत हो गये हैं. कि नामवनवन का उदय हुदु बाद हुआ होगा ! पानु बैन वया बैदयों ने ही भागवचन के दो व्हेन्द्र पाये जाने हैं, उन ने यही बात सष्ट विदित होती है, कि नागवनवन बुदले प्राचीन है। अब अलर ने कहा है कि नागावनं चाय-कल ट्र-कला हनने के दो हमारे 'ओनयन मन्य के प्रनिलाइन के अनुसार वनादि अन्यों क अ ही पछि इनाया जाना चाहिये । पचिनो परिदों ने अन्लान् अनुमानों से वैदिक प्रन्या केनो कल निति न्यि हैं, वे नमक है कि कल की पूर्व न्यादा ईसा के पहले ५०० से कम नहीं ली जाती इलादि दानों के हमने करने ओपयन'न्य नवदों केदारन्थति-वर्गक वायों के बाहर पर जिद्ध कर दिया है। बाइसी अनुमान की विश पश्चिमी परिडताननी प्राव नाना है। हमर अबद-काल को पीछे हटने ने वैदिक धर्म के उदगा श्री बृद्धि होने के लिये वचित कालावय मिल जाता है और भागवत बोदय काम मंचुरिन अरेचकोई प्रयोजन ही नहीं रह जाता। परनाम्वासी ईका दाबण दीक्षित ने अपने भारतीय लोनिशान (नरावे) इतिहास में यह बननाया है, किन्वे के बाइब्राह्मण आदि वविन्न प्रवृति ननत्रों की गाना है, इसलिये उनका नाईले लगना २५०० वर्ष पहले निश्चित करना पड़ता है। पातु हमारे देखने में यह अनी तक नहीं आया है, कि स्वायन स्थिति प्रज्यों 52F Indian-iniiquary, Septemba 1994, TLITII 0233-22) इन मचा है, देना।
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