गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट। युग के आरम्भ में भगवान् ने पहले विवस्वान् को, विवस्वान् ने मनु को, और मनु ने इक्ष्वाकु को गीता-धर्म का उपदेश किया था, परन्तु काल के हेर-फेर से उसका लोप हो जाने के कारण वह फिर से अर्जुन को यतलाना पड़ा। गीता-धर्म की परं- परा का ज्ञान होने के लिये ये श्लोक अत्यंत महाब के है परन्तु टीकाकारों ने शब्दार्य बतलाने के अतिरिक्त टनका विशेष रीति से स्पष्टीकरण नहीं किया है, और कदा- चित् ऐसा करना उन्हें इष्ट भी न रहा हो। क्योंकि, यदि कहा जाय कि गीता- धर्म मूल में किसी एक विशिष्ट पन्य का है, तो उससे अन्य धार्मिक पन्यों को कुछ न कुछ गौणता प्राप्त हो ही जाती है। परन्तु हमने गीता-रहस्य के आरम्भ में तयां गीता के चौथे अध्याय के प्रथम दोश्लोकों की टीका में प्रमागा-सहित इस बात का स्पष्टीकरण कर दिया है, कि गीता में वर्णित परंपरा का मेल, उस परम्परा के साथ पूरा पूरा देख पड़ता है, किजोमहामारतान्तर्गत नारायणीयोपाख्यान में वर्णित मागवत. धर्म की परम्परा में अन्तिम त्रेतायुग-कालीन परम्परा है। भागवतधर्म तथा गीता- धर्म की परम्परा की एकता को देखकर कहना पड़ता है, कि गीता-ग्रंथ भागवतधर्मीय है और, यदि इस विषय में कुछ शंका हो, तो महामारत में दिये गये वैशंपायन के इस वाक्य- गीता में भागवतधर्म ही बतलाया गया है" (म.भा. शां. ३६६.३०)-से वह दूर हो जाती है । इस प्रकार जब यह सिद्ध हो गया, कि गीता औपनिपदिक ज्ञान का अर्थात् वेदान्त का स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है-उसमें भागवतधर्म का प्रतिपादन किया गया है, तब यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं, कि भागवतधर्म से अलग करके गीता की जो चर्चा की जायगी वह अपूर्ण तथा भ्रममूलक होगी । अतएव, भागवतधर्म कय उत्पन्न हुआ और उसका मूलस्वरूप क्या था, इत्यादिप्रश्नों के विपय में जो बातें इस समय उपलब्ध है, उनका भी . विचार संक्षेप में यहाँ दिया जाना चाहिये । गीतारहस्य में हम पहले ही कह आये हैं, कि इस भागवतधर्म के ही नारायगीय, सात्वत, पाचरान-धर्म आदि अन्य नाम हैं। उपनिषत्काल के याद और बुद्ध के पहले जो वदिक धर्मग्रंथ वन, उनमें से अधिक कांश अन्य लुप्त हो गये हैं. इस कारण भागवतधर्म पर वर्तमान समय में नो अन्य उपलब्ध हैं उनमें से, गीता के अतिरिक्त, मुल्य अन्य यही हैं:-महामारतान्तर्गत शांतिपर्व के अन्तिम अठारह अध्यायों में निरूपित नारायणीयोपाख्यान (म.भा. शां. ३३४-३५१), शांडिल्यसूत्र, भागवतपुराणा, नारदपाञ्चरात्र, नारदसूत्र, तथा रामानुजाचार्य प्रादि के अन्य । इनमें से रामानुजाचार्य के ग्रन्थ तो प्रत्यक्ष में सांप्र. दायिक दृष्टि से ही, अर्थात् भागवतधर्म के विशिष्टाद्वैत वेदान्त से मेल करने के लिये, विक्रम संवत् १३३५ में (शालिवाहन शक के लगभग बारहवें शतक में) लिखे गये हैं । अतएव भागवतधर्म का मूलस्वरूप निश्चित करने के लिये इन अन्यों का सहारा नहीं लियाजा समता; और यही बात मध्वादि के अन्य वैष्णव- अन्यों की भी हैं । श्रीमद्भागवतपुरागा इसके पहले का है। परन्तु इस पुराण के
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५८३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।