भाग ४ -भागवतधर्म का उदय और गीता । स्थानों में पाया जाता है, कि जिन रुद्र, विष्णु, प्रत्युत, नारायण तथा वातदेव मादि की भक्ति की जाती है, घे भी परमात्मा के अथवा परबस के रूप है (मन्यु. ७. ७ रामपू. १६ अमृतबिन्दु. २२ आदि देखो)। सारांश, वैदिकधर्म में समय समय पर भात्मज्ञानी पुरुषों ने जिन धमांगों को प्रवृत्त किया है, वे प्राचीन समय में प्रचलित धर्मागों से ही प्रादुर्भूत हुए हैं और, नये धांगों का प्राचीन समय में प्रचलित धमांगों के साथ मेल करा देना ही, वैदिक धर्म की उजति का पहले से मुख्य उद्देश रहा है तथा भिन्न भिन धमांगों की एकवाक्यता करने के इसी उद्देश को स्वीकार करके, मागे चल कर हमतिकारों ने पाश्रम व्यवस्थाधर्म का प्रतिपादन किया है। भिल भिन्न धांगों की एकवाश्यता करने की इस प्राचीन पद्धति पर जब ध्यान दिया जाता है, तब यह कहना सयुक्तिक नहीं प्रतीत होता, कि वक्त पूर्वापर पद्धति को छोड़ केवल गीता धर्म ही अकेला प्रवृत्त हुआ होगा। ग्राहमण-अन्धों के यज्ञयागादि कर्म, उपनिषदों का ब्राह्मज्ञान, कापिलसांख्य, चित्तनिरोधरूपी योग तथा भक्ति, यही वैदिक धर्म के मुख्य मुख्य अंग हैं और इनकी उत्पत्ति के क्रम का सामान्य इतिहास ऊपर लिखा गया है। अब इस यात का विचार किया जायगा कि गीता में इन सब धमांगों का जो प्रतिपादन किया गया है उसका मूल क्या है ?-अर्थात् वह प्रतिपादन साक्षात् भिन भिन्न उपनिपदी से गीता में लिया गया है अथवा बीच में एक प्राध सीढ़ी और है । केवल प्रा. ज्ञान के विवेचन के समय कठ श्रादि उपनिषदों के कुछ श्लोक गीता में ज्यों के त्यों लिये गये हैं और ज्ञान-कर्म-समुच्चयपन का प्रतिपादन करते समय जनक मादि के औपनिषदिक उदाहरण भी दिये गये हैं। इससे प्रतीत होता है, कि गीता अन्य साक्षात् उपनिषदों के आधार पर रचा गया होगा। परन्तु गीता ही में गीता-धर्म की जो परम्परा दी गई है उसमें तो उपनिपदों का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। जिस प्रकार गीता में द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानमय यज्ञ को श्रेष्ठ माना है (गी. ४. ३३), उसी प्रकार छांदोग्योपनिषद में भी एक स्थान पर यह कहा है, कि मनुष्य का जीवन एक प्रकार का यज्ञ ही है (चौ. ३. १६, १७), और इस प्रकार के यश की महत्ता का वर्णन करते हुए यह भी कहा है कि "यह यज्ञ-विद्या घोर मांगिरस नामक ऋपिने देवकी-पुत्र कृष्ण को पतलाई । " इस देवकीपुत्र कृष्ण तथा गीता के श्रीकृष्ण को एक ही व्यक्ति मानने के लिये कोई प्रमाण नहीं है । परन्तु यदि कुछ देर के लिये दोनों को एक ही व्यक्ति मान लें तो भी स्मरण रहे कि ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ माननेवाली गीता में घोर आंगिरस का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है। इसके सिवा, वृहदारण्यकोपनिषद से यह बात प्रगट है. कि जनक का मार्ग यद्यपि ज्ञानकर्मसमुच्चयात्मक था, तथापि उस समय इस मार्ग भक्ति का समावेश नहीं किया गया था । अतएव भक्तियुक्त ज्ञान-कर्म-समुच्चय पन्थ की सांप्रदायिक परंपरा में जनक की गणना नहीं की जा सकती-और न वद गीता में की गई है। गीता के चौथे अध्याय के प्रारम्भ में कहा है (गी. ४. १-३), कि
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