५४२ गीतारहत्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । सकती थी-करने का भी प्रयत्न उसी समय आरम्म हुआ था । वृहदारण्यकादि प्राचीन पनिपदों में कापिल-सांख्य-ज्ञान को कुछ महाब नहीं दिया गया है। परन्तु मैयुपनिषद् में सांख्यों की परिमापा का पूर्णतयां स्वीकार करके यह कहा है कि अन्त में एक परब्रह्म ही से सांख्यों के चौबीस तत्व निर्मित हुए हैं। तयापि कानि- सांख्य शास्त्र मी राम्य-प्रधानं अयाद कर्म के विल्द हैं। तात्पर्य यह है कि प्राचीन काल में ही वैदिक धर्म के तीन दल हो गये थे:-(0) केवल यज्ञयाग मादि कर्म करने का मार्ग, (२)ज्ञान तथा वैरान्य से कर्म संन्यास करना, अयांत ज्ञाननिष्टा अथवा सांख्य मार्ग; और (३)ज्ञान तथा वैराग्य-बुदि ही से नित्य कर्म करने का मार्ग, अर्थात् झार-समुच्चय-मार्ग । इनमें से, ज्ञान भाग ही से, मागे चल कर दो अन्य शाखाएँ-योग और मकि-निर्मित हुई हैं । छांदोग्यादि प्राचीन उपनिरहों में यह कहा है कि परब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करने के लिये ब्रह्म-चिन्तन अत्यन्त आवश्यक है। और, यह चिन्तन, मनन तया ध्यान करने के लिये चित्त एकाग्र होना चाहिय और चित्त को स्थिर करने के लिये, परब्रह्म का कोई न कोई सगुण प्रतीक पहले नेत्रों के सामने रखना पड़ता है । इस प्रकार ब्रह्मोपासना करते रहने से चिच कीलो एकापता हो जाती है, उसी को आग विशेप नहाल दिया जाने लगा और विचनिरोध-रूपी योग एक जुद्रा मार्ग हो गया; भार, जब सगुण प्रतीक के बदले परमेश्वर के मानवरूपधारी व्यक्त प्रतीक की उपासना का प्रारम्भ धीरे धीरे होने नगा, तब अन्त में भक्ति मार्ग उत्पन्न हुआ। यह भक्तिमार्ग भापनिपदिक ज्ञान से मनग, बीच ही में स्वतंत्र रीति से प्रादुर्भूत, नहीं हुआ है और न मकि की कल्पना हिन्दुस्थान में किसी अन्य देश से लाई गईहासय उपनिषदों का अवलोकन करने से यह क्रम देख पड़ता है, कि पहले ब्रह्मचिन्तन के लिये यज्ञ के अंगों की भयवा में कार की उपासना यो; आगे चल कर रुद्र, विष्णु आदि वैदिक देवतामा की, अथवा आकार आदि सगुण व्यक ब्रह्म प्रतीक की, उपासना का प्रारम्न हुआ; और अन्त में इसी हेतु से भर्यात् ब्रह्मप्राप्ति के लिये ही राम, नृसिंह श्रीकृष्ण, वासुदेव आदि की भक्ति, अयान एक प्रकार की उपासना, जारी हुई है। उपनिपट्टों की भाषा से यह बात भी साफ़ साफ़ मालूम होती है, कि टेनमें से योगतत्त्वादि योग-विषयक उपनिषद् तथा नृसिंहतापनी, रामतापनी आदि महि- विषयक उपनिषद, वांदोन्यादि उपनिषदों की अपेक्षा अर्वाचीन है। अतएव ऐति- हासिक दृष्टि से यह कहना पड़ता है, किचांदीन्यादि प्राचीन स्पनिपदों में वर्णित कर्म, ज्ञान अथवा संन्यास, और ज्ञान-कम-समुच्चय-इन तीनों दलों के प्रादुर्भूत हो जाने पर ही आगे योग-नाग और भक्ति मार्ग को श्रेष्टता प्राप्त हुई है । परन्नु योग और भकि, ये दोनों साधन यद्यपि प्रकार से श्रेष्ठ माने गये, तथापि उनके पहले के ब्रह्मज्ञान की श्रेष्टता कुछ कम नहीं हुई-मौरन उसका कम होना सम्मव ही था। इसी कारण योगप्रधान तया भक्तियधान पनिषदों में भी ब्रह्म- ज्ञान को भक्ति और योग का अनि साध्य कहा है, और ऐसा वर्णन भी कई
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५८१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।