भाग ४-भागवतधर्म का उदय और गीता। रष्टि से पैदिक धर्म की प्रथम सीढ़ी कह सकते हैं। मीमांसक-मार्ग' नाम मास शेने फे पहले उसको प्रयोधर्म अर्थात् तीन वेदों द्वारा प्रतिपादित धर्म कहते थे; और इसी नाम का उलेख गीता में भी किया गया है (गीता.६.२०. तथा २१ देखो)। कर्म-मय प्रयोधर्म के इस प्रकार जोर-शोर से प्रचलित रहने पर, कर्म से अर्थात् केवल यश याग प्रादि के वाद्य प्रयत्न से परमेश्वर का ज्ञान कैसे हो सकता है? शान होना एक मानसिक स्थिति है, इसलिये परमेश्वर के स्वरूप का विचार किये विना ज्ञान होना सम्भव नहीं, इत्यादि विषय और कल्पनाएँ उपस्थित होने लगी और धीरे धीरे उन्हीं में से औपनिषदिक ज्ञान का प्रादुर्भाव दुआ । यह यात, छांदोग्य आदि उपनिपदों के प्रारम्भ में जो अयतरा दिये हैं, उनसे स्पष्ट मालूम हो जाती है। इस औपनिषदिक ग्रामज्ञान ही को आगे चलकर 'वेदान्त' नाम प्राप्त पुमा । परन्तु, मीमांसा शब्द के समान यधपि पेदान्त नाम पीछे प्रचलित हुमा है। सपापि उससे यह नहीं कहा जा सकता, कि यमज्ञान अथवा ज्ञानमार्ग भी नया है। यह यातं सच है, कि वार्मकांड के मनन्तर ही ज्ञानकांड उत्पल दुसा, परन्तु सरण रहे कि ये दोनों प्राचीन हैं। इस ज्ञानमार्ग ही की दूसरी, किन्तु स्वतंत्र, शाखा कापिल सांख्य है। गीतारहस्य में यह पतला दिया गया है, कि घर ममज्ञान अद्वैती है, तो उधर सांख्य देती भार, सृष्टि की उत्पत्ति के कम के सम्बन्ध में सांख्यों के विचार मूल में भिन हैं। परन्तु श्रीपनिपदिक अद्वैती ब्रम- शान तथा सांग्यों का द्वैती ज्ञान, दोनों यद्यपि मूल में भिन्न भिन्न हों, तथापि कपल शान-दृष्टि से देखने पर जान पड़ेगा, कि ये दोनों मार्ग अपने पहले के यज्ञ- थाग-आदि कर्ममार्ग के एक ही से विरोधी मितएव यह प्रश्न स्वभावतः उत्पन्न दुमा, कि कर्म का ज्ञान से किस प्रकार मेन किया जावे ? इसी कारण से उपनिप. त्काल ही में इस विषय पर दो दल हो गये थे। उनमें से वृहदारण्यकादिक उपनि पद तथा सांख्य यह कहने लगे कि फर्म और ज्ञान में नित्य विरोध है इसलिये ज्ञान हो जाने पर कर्म का त्याग करना प्रशस्त ही नही किन्तु प्रावश्यक भी है इसके विरुद्ध, ईशावास्यादि अन्य उपनिषद् यह प्रतिपादन करने लगे, कि ज्ञान हो पाने पर भी कर्म छोड़ा नहीं जा सकता, वैराग्य से बुद्धि को निष्काम करके जगत में व्यवहार की सिद्धि के लिये ज्ञानी पुरुष को सब कर्म करना ही चाहिये । इन उप- निषदों के भाप्यों में इस भेद को निकाल ढालने का प्रयत्न किया गया है । परन्तु, गीतारहस्य के न्यारहवें प्रकरण के अन्त में किये गये विवेचन से यह बात ध्यान में आ जायगी, फि शांकरभाष्य में ये साम्प्रदायिक अर्थ खींचातानी से किये गये हैं; और इसलिये इन उपनिषदों पर स्वतंत्र रीति से विचार करते समय वे अर्थ ग्रास नहीं माने जा सकते । यह नहीं कि केवल यज्ञयागादि कर्म तथा प्रहाज्ञान ही में मेन करने का प्रयत्न किया गया हो; किन्तु मैन्युपनिपद के विवेचन से यह बात भी साफ साफ़ प्रगट होती है, कि कोपिल-सांख्य में पहले पहल स्वतंत्र रीति से प्रादु- भूत घरावर-ज्ञान की तथा उपनिषदों के नामज्ञान की एकवाक्यता-जितनी हो
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