विषयप्रवेश। २१ . 1 धात · उपक्रमोपसंहारी' अर्थात् ग्रन्थ का प्रारम्भ और अन्त है। कोई भी मनुष्य अपने मन में कुछ विशेष हेतु रख कर ही अंध लिखना शारम्भ करता है और उस हेतु के सिद्ध होने पर अन्य को समाप्त करता है । अतएव ग्रन्थ के तात्पर्य-निर्णय के लिये, उपक्रम सौर उपसंहार ही का, सबसे पहले विचार किया जाना चाहिये। सीधी रेखा की व्याख्या करते समय भूमितिशास्रा में ऐसा कहा गया है कि प्रारंभ के पिन्दु से जो रेखा दाहिने-बाएँ या उपर-नीचे किती तरफ़ नहीं झुकती और अन्तिम विंद तक सीधी चली जाती है उसे सरल रेखा कहते हैं । ग्रंथ के तात्पर्य निर्णय में भी यही सिद्धान्त उपयुक्त है । जो तात्पर्य ग्रन्थ के आरम्भ और अन्त में साफ़ साफ झलकता है वही अन्य का सरल तात्पर्य है। सारंग से अंत तक जाने के लिये यदि अन्य मार्ग हो भी तो उन्हें टेढ़े समझना चाहिये; श्राधन्त देख कर ग्रंथ का तात्पर्य पहले निश्चित कर लेना चाहिये और तप यह देखना चाहिये कि उस ग्रंथ में अभ्यास' अर्थात् पुनरुक्ति-स्वरूप में बार बार क्या कहा गया है । क्योंकि ग्रन्थकार के मन में जिस बात को सिद्ध करने की इच्छा होती है उसके सगर्थन के लिये वह अनेक वार कई कारणों का उल्लेख करके बार बार एक ही निश्चित सिद्धान्त को प्रगट किया करता है और हर बार कहा करता है कि " इसलिये यह बात सिद्ध हो गई, ""अत- एव ऐसा करना चाहिये " इत्यादि । अन्य के तात्पर्य का निर्णय करने के लिये जो चौथा साधन है उसको अपूर्वता' और पाँचवं साधन को 'फल' कहते हैं। अपूर्वता' कहते हैं। नवीनता' को। कोई भी ग्रन्थकार जव ग्रन्थ लिखना शुरू करता है तब वह कुछ नई बात बतलाना चाहता है विना कुछ नवीनता या विशेष वक्तव्य के वह ग्रंथ लिखने में प्रवृत्त नहीं होता; विशेष करके यह बात उस ज़माने में पाई जाती थी जव कि छापेखाने नहीं थे । इसलिये किसी अन्य के तात्पर्य का निर्णय करने के पहले यह भी देखना चाहिये कि उसमें अपू. वैता, विशेषता या नवीनता क्या है। इसी तरह लेख अथवा अन्य के फल पर भी-अर्थात् उस लेख या ग्रन्थ से जो परिणाम हुआ हो उस पर भी ध्यान देना चाहिये । क्योंकि अमुक फल हो, इसी हेतु से ग्रन्थ लिखा जाता है इसलिये यदि घटित परिणाम पर ध्यान दिया जाय तो उससे ग्रंथकर्ता का आशय यहुत ठीक ठीक व्यक्त हो जाता है । छटवाँ और सातवाँ साधन ' अर्थवाद ' और ' उपपति' है। अर्थवाद मीमांसकों का पारिभाषिक शब्द है (जै. सू. १. २.१-१८)। इस बात के निश्चित हो जाने पर भी, कि हमें मुख्यतः किस बात को वतला कर जमा देना है अथवा किस बात को सिद्ध करना है, कभी कभी ग्रन्थकार दूसरी अनेक बातों का प्रसंगानुसार वर्णन किया करता है, जैसे प्रतिपादन के प्रवाह में दृष्टान्त देने के लिये, तुलना करके एकवाक्यता करने के लिये, समानता और भेद दिखलाने के लिये, प्रतिपक्षियों के दोष बतला कर स्वपन का मंडन करने के लिये, अलंकार और प्रति- शयोक्ति के लिये, और युक्तिवाद के पोषक किसी विषय का पूर्व-इतिहास बतलाने के .
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