भाग ३-गीता और ब्रह्मसूत्र । पूर्वक विवेचन ब्रह्मसूत्रों में किया गया है। वर्तमान गीता में ब्रह्मसूत्रों का जो यह उल्लेख है उसकी बरावरी के ही सूत्रग्रंथ के अन्य उल्लेख वर्तमान महाभारत में भी हैं। उदाहरणार्थ, अनुशासनपर्व के भ्रष्टावक्र आदि के संवाद में "अनृताः खिय इत्येवं सूत्रकारी व्यवस्यति" (अनु. १६.६) यह वाक्य है। इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण (शान्ति. ३१८. १६-२३), पञ्चरात्र (शान्ति. ३३६. १०७), मनु. (अनु. ३७. १६) और यास्क के निरुक्त (शान्ति. ३४२. ७१) का भी अन्यत्र साफ़ साफ उल्लेख किया गया है । पान्तु गीता के समान महाभारत के सब भागों को मुखाग्र करने की रीति नहीं थी, इसलिये यह शंका सहज ही उत्पन्न होती है, कि गीता के अतिरिक्त महाभारत में अन्य स्थानों पर जो अन्य ग्रंथों के उल्लेख हैं, वे कालनिर्ण- यार्थ कहाँ तक विश्वसनीय माने जायें। क्योंकि, जो भाग मुखाम नहीं किये जाते उनमें क्षेपक श्लोक मिला देना कोई कठिन बात नहीं। परन्तु, इमारे मतानुसार, उपर्युक्त अन्य उल्लेखों का यह बतलाने के लिये उपयोग करना कुछ अनुचित न होगा, कि वर्तमान गीता में किया गया ब्रह्मसूत्रों का उल्लेख केवल अकेला या अपूर्व अतएव अविश्वासनीय नहीं है। "महसून पदैश्चैव " इत्यादि श्लोक के पदों के अर्ध-स्वारस्य की मीमांसा करके हम ऊपर इस बात का निर्णय कर आये हैं, कि भगवद्गीता में वर्तमान ब्रह्मसूत्रों या वेदान्तसूत्रों ही का उल्लेख किया गया है। परन्तु भगवद्गीता में ब्रह्मसूत्रों का उल्लेख होने का-और वह भी तेरहवें अध्याय में अर्थात् क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार ही में होने का- हमारे मत एक और महत्वपूर्ण तथा दृढ़ कारण है। भगवद्गीतामें वासुदेव- भक्ति का तत्व यद्यपि मूल भागवत या पाचराव-धर्म से लिया गया है तथापि (जैसा हम पिछले प्रकरणों में कह पाये हैं) चतुर्दूह-पाचरात्र-धर्म में वर्णित मूल जीव और मन की उत्पत्ति के विषय का यह मत भगवद्गीता को मान्य नहीं है, कि वासुदेव से संकर्पण अर्थात् जीव, संकर्पण से प्रद्युम्न (मन) और प्रद्युम्न से अनिरुद्ध (अहंकार) उत्पन्न हुआ। ब्रह्मसूत्रों का यह सिद्धान्त है, कि जीवात्मा किसी अन्य वस्तु से उत्पन्न नहीं हुआ है (वैसू. २. ३. १७), वह सनातन पर- मात्मा ही का नित्य 'अंश' है (वेसू. २. ३-४३) । इसलिये प्रससूत्रों के दूसरे कृष्णाजी के छापखाने से प्रकाशित पोथी में तथा कलशत की प्रति में भीनहीं मिलता झुमकोण की पोथी का शान्तिपर्व का २१२ वा अध्याय, बंबई और कलकत्ता की प्रति में, २१० वा है। कुंभकोण पाठ का यह श्लोक हमारे मित्र डाक्टर गणेश ऋण गर्दै ने हमें सूचित किया, अतएव हम उनके कृतश है। उनके मतानुसार इस स्थान पर कर्मयोग शब्द से गीता श विवक्षित है और इस झोक गीना और दान्तसूत्रों का ( भाव दोनों का । कर्तृत्व व्यासजी को ही दिया गया है।महाभारत को तीन पोथियों में से केवल एक ही प्रतिमें ऐसा पाठ मिलता है। अतएव उसके विषय में लुछ शंका उत्पन्न होती है। इस विषय में चाहे जो कहा जाय किन्तु इस पाठसे इतना तो अवश्य ास हो जाता है, के हमारा यह अनुमान -कि वेदान्त और कर्मयोग का कर्ता एक ही है--कुछ नया या निराधार नहीं। गी.र.६८
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५७६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।