भाग ३-गीता और ब्रह्मसूत्र । ५३३ हो जाता है, कि इस श्लोक में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार के दो भिन्न भिन्न स्थानों का उल्लेख किया गया है । ये दोनों स्थान केवल भिन्न ही नहीं हैं, किन्तु उनमें से पहला अर्थात् ऋपियों का किया हुआ वर्णन " विविध छंदों के द्वारा पृथक् पृथक् अर्थात कुछ यहाँ और कुछ वहाँ तथा अनेक प्रकार का" है और उसका अनेक ऋपियों द्वारा किया जाना ऋपिभिः' (इस बहुवचन तृतीयान्त पद) से स्पष्ट हो जाता है। तथा ब्रह्मसूत्र-पदों का दूसरा वर्णन " हेतुयुक्त और निश्चयात्मक " है । इस प्रकार इन दोनों वर्णनों की विशेष भिन्नता का स्पष्टीकरण इसी श्लोक में है। 'हेतुमत् ' शब्द महाभारत में कई स्थानों पर पाया जाता है और उसका अर्थ है- " नैय्यायिक पद्धति से कार्यकारण-भाव बतलाकर किया हुआ प्रतिपादन । " उदा- हरणार्थ, जनक के सन्मुख सुलमा का किया हुआ भापण, अथवा श्रीकृष्ण जव शिष्टाई के लिये कौरवों की सभा में गये उस समय का उनका किया हुमा भाषण लीजिये । महाभारत में ही पहले भाषण को " हेतुमत् और अर्थवत् " (शा. ३२०. १६१ ) और दूसरे को " सहेतुक" (उद्यो. १३१.२) कहा है। इससे यह प्रगट होता है, कि जिस प्रतिपादन में साधक-बाधक प्रमाण बतलाकर अंत में कोई भी अनुमान निस्संदेह सिद्ध किया जाता है उसी को . हेतुमद्भिर्वि निश्चितैः " विशेपण लगाये जा सकते हैं। ये शब्द उपनिपदों के ऐसे संकीर्ण प्रति- पादन को नहीं लगाये जा सकते कि जिसमें कुछ तो एक स्थान में हो और कुछ दूसरे स्थान में । अतएव "ऋषिभिः बहुधा विविधैः पृथक" और "हेतुमद्भिः विनि- श्चितैः पदों के विरोधात्मक स्वारस्य को यदि स्थिर रखना हो, तो यही कहना पड़ेगा कि गीता के उक्त श्लोक में " अपियों-द्वारा विविध छंदों में किये गये अनेक प्रकार के पृथक् " विवेचनों से भिन्न भिन्न उपनिपदों के संकीर्ण और पृथक् वाक्य ही अभिप्रेत हैं, तथा " हेतुयुक्त और विनिश्चयात्मक ब्रह्मसूत्रपदों" से ब्रह्मसूत्र-ग्रंथ का वह विवेचन अभिप्रेत है कि जिसमें साधक-बाधक प्रमाण दिखलाकर अंतिम सिद्धान्तों का सन्देह-रहित निर्णय किया गया है । यह भी स्मरण रहे, कि उपनिपदों के सब विचार इधर उधर बिखरे हुए हैं, अर्थात् अनेक ऋपियों को जैसे सूझते गये वैसे ही वे कहे गये हैं, उनमें कोई विशेष पद्धति या फम नहीं है। अतएव उनकी एकवाक्यता किये बिना उपनिषदों का भावार्थ ठीक ठीक समझ में नहीं आता । यही कारण है कि उपनिषदों के साथ ही साथ उस ग्रंथ या वेदान्तसूत्र (ब्रह्मसूत्र) का भी उल्लेख कर देना आवश्यक था जिसमें कार्य- कारण हेतु दिखला कर उनकी (अर्थात् उपनिपदों की) एकवाक्यता की गई है। गीता के श्लोकों का धक्त अर्थ करने से यह प्रगट हो जाता है, कि उपनिषद और ब्रह्मसूत्र गीता के पहले बने हैं। उनमें से मुख्य मुख्य उपनिषदों के विषय में तो कुछ भी मत-भेद नहीं रह जाता; क्योंकि इन उपनिपदों के बहुतेरे श्लोक गीता में शब्दशः पाये जाते हैं । परन्तु ब्रह्मसूत्रों के विषय में संदेह अवश्य किया जा सकता है। क्योंकि ब्रह्मसूत्रों में यद्यपि 'भगवद्गीता' शब्द का उल्लेख प्रत्यक्ष में
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