गीतारहत्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट। परन्तु इससे भी अधिक महत्व गीता का भाग, कर्मयोग के साथ मार और ब्रह्मज्ञान का मैल कर देना ही है। चानुएर्य के अयत्रा श्रौतयज्ञ-याग आदि कों को यद्यपि उपनिषदों ने गांगण माना है, तथापि कुछ उपनिपत्कारों का कयन है, कि उन्हें चित्तशुदि के लिये वो करना ही चाहिये और वित्तशुद्धि होने पर भी उन्हें छोड़ देना संचित नहीं । इतना होने पर भी कह सकते हैं, कि अधिकांश उप. निपड़ों का नुकाव सामान्यतः कर्मसंन्यास की ओर ही है । ईशावास्योपनिषद के समानं कुछ अन्य उपनिषदों में भी "कुर्वन्नवह कर्माणि जैसे, मामरणान्त कर्म करते रहने के विषय में, वचन पाये जाते हैं परन्तु अध्यात्मज्ञान और सांसारिक क्रमों के बीच का विरोध मिद्य कर प्राचीन काल से प्रचलित इस कर्म योग का समर्थन जैसा गीता में किया गया है. वैसा किसी भी टपनिषद् में पाया नहीं जाता। अयवा यह भी कहा जा सकता है, कि इस विषय में गीता का सिद्धान्त प्रवि- का पनिपकारों के सिद्धान्तों से भिन्न है। गीतारहस्य के न्यारहवें प्रकरण में इस विषय का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है, इसलिये उसके बारे में यहाँ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं। गीता के छठवें अध्याय में जिस योग-साधन का निर्देश किया गया है, उसका विस्तृत और ठीक ठीक विवचन पातंजन-योग-सूत्र में पाया जाता है और इस समय ये सूत्र ही इस विषय के प्रमाणमत ग्रंथ समझ जाते हैं। इन सूत्रों के चार अध्याय हैं। पहले अध्याय के प्रारंभ में योग की व्याच्या इस प्रकार की गई है कि " योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः"; और यह बताया गया है कि " अभ्यासवरान्याम्यां तनिरोधः" अर्थात् यह निवेध अभ्यास तया वैराग्य से किया जा सकता है। आगे चलकर यम-नियम-आसन-ग्राणायाम आदि योगसाधनों का वर्शन करके तीसरे और चौथे अध्यायों में इस वात का निरूपण किया है, कि ' असंप्रज्ञात् ' अर्थात् निर्विकल्प समावि से अणिमा लघिमा आदि अकिक सिद्धियाँ और शक्तियाँ प्राप्त होती है, तयां इसी समाधि से अंत में ब्रह्मनिवांणल्प मोक्ष मिन्न जाता है। मगबबीता में भी पहले वित्तनिरोध करने की आवश्यक्ता (गी. ६.२०) बत- लाई गई है, फिर कहा है कि अभ्यास तया वैराग्य इन दोनों साधनों से वित्त का निरोध करना चाहिये (६.३५) और, अन्त में निर्विकल्प समाधि लगाने की रीति का वर्णन करके, यह दिखलाया है कि उसमें क्या सुख है। परन्तु केवल इतने ही से यह नहीं कहा जा सकता, कि पातंजल योग-मार्ग से भगवद्गीता सहमत है, अयवा पाजल सूत्र नगवद्गीता से प्राचीन है । पातंजल सूत की नाई भगवान् ने यह कहीं नहीं कहा है, कि समाधि सिद्ध होने के लिये नाक पकड़े पकड़े सारी आयु व्यतीत कर देनी चाहिये । कर्मयोग की सिद्ध के लिये वृद्धि की समता होनी चाहिये और इस समता की प्राप्ति के लिये वित्तनिरोध तयासमाधि दोनों आवश्यक है, अतएव केवल साधनल्म से इनका- वर्णन गीता में किया गया है। ऐसी अवस्था में यही कहना चाहिये, कि इस विषय में पातंजल सूत्रों की अपेक्षा श्वेता.
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