भाग २-गीता और उपनिषद ५२६ युक्त उपनिषदों का अभिप्राय नहीं होगा? अच्छा, यदि. कोई कहे कि मानवदेह- धारी एपवतारों की बाल्पना उस समय भी होगी, तो यह पुत्र दिलकुल ही असंभव नहीं है । क्योंकि, वेताशतरोपनिपद में जी' माक्ति' शब्द है उसे यशरूपी उपासना के विषय में प्रयुक्त करना तक नाचता। यह बात सच है कि महानारायण, नसिंहतापनी, रामतापनी तथा गोपालतापनी प्रादि पनिपदी के वचन शेतायत. रोपनिपद के वचनों की अपेक्षा कमी अधिक स्पष्ट है, इसलिये उनके विषय में उस प्रकार की शंका करने के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता । परन्तु इन उपनिषदों का कागा निश्रित करने के लीये ठीक ठीक साधन नहीं है। इसलिये इन उपनिषदों के प्राधार पर यह प्रक्ष ठीक तौर से हल नहीं किया जा सकता, कि वैदिक धर्म में मानयरूपधारी विष्णु की भक्ति का उदय कय हुआ ? तथापि अन्य रीति से वैदिक भक्तिमार्ग की प्राचीनता अच्छी तरह सिद्ध की जा सकती है । पाणिनि का एक सूत्र है 'भक्तिः'-अधीन जिसमें भक्ति हो (. पा. ४. ३. १५) : इसके भागे " वासुदेवाणुनाभ्यां युग" (पा. ४.३.६८) इस सूत्र में कहा गया है, कि जिसकी वासुदेव में भक्ति हो उसे 'वासुदेवक ' और जिसकी पन में भक्ति हो उसे 'अनफ' कहना चाहिये और पतंजलि के महाभाष्य में इस पर टीका करते समय कहा गया है, कि इस सूत्र में घासुदेव ' क्षाग्नेिय का गा भगवान् ' का नाम है। इन ग्रंथों से पातंजल-माप्य के विषय में डाफ्टर भांडारकर ने यह सिद्ध किया है, कि वह ईसाई सन् के लगभग ढाई सौ वर्ष पहले बना है। और इसमें तो सन्देक्ष ही नहीं कि पाणिनि का फाल इससे भी अधिक प्राचीन है । इसके सिवा, भक्ति का उल्लेख योद्धधर्म-ग्रंथों में भी किया गया है और हमने आगे चलकर विस्तार पूर्वक बतलाया है, कि बौद्ध धर्म के महायान पंथं में भक्ति के तत्वों का प्रवेश होने के लिये श्रीकृष्ण का भागवत-धर्म ही कारण हुआ होगा । पतएव यह घात निर्वि- थाद सिद्ध है, कि कम से कम युद्ध के पहले-अर्थात ईसाई सन् के पहले लगभग छ: सौ से अधिक वर्प-हमारे यहाँ का भक्तिमार्ग पूरी तरह स्थापित हो गया था। नारदपयरात्र या शांटिल्य अथवा नारद के भक्सिस उसके बाद के है। परन्तु इससे भक्तिमार्ग अथवा भागवतधर्म की प्राचीनता में कुछ भी याधा हो नहीं सकती। गीतारहस्य में किये गये विवेचन से ये बात स्पष्ट विदित हो जाती हैं, कि प्राचीन उपनिपदों में जिस सगुणोपासना का वर्णन है उसी से क्रमशः हमारा भक्तिमार्ग निकला है। पातंजल योग में चिंत को स्थिर करने के लिये किसी न किसी व्यक्त और प्रत्यन वस्तु को दृष्टि के सामने रखना पड़ता है, इसलिये उससे भक्तिमार्ग की पौर भी पुष्टि हो गई है। भक्तिमार्ग किसी अन्य स्थान से हिंदुस्थान में नहीं लाया गया है और न उसे कहीं से लाने की आवश्यकता ही थी । खुद हिंदु- स्थान में इस प्रकार से प्रादुर्भूत भक्तिमार्ग का और विशेषतः वासुदेव-भक्ति का उपनिपदों में वर्णित वेदान्त की दृष्टि से, मण्डन करना ही गीता के प्रतिपादन का एक विशेष भाग है। गी.र. ६७.
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