भाग १ - गीता और महाभारत । ५२३ सर्यमा मशाल भगएप भग्राही, यदि इस बात की उपपति ही मालूम न होती कि गीता को महाभारत में क्याल्पान दिया गया है, तो यात फार भार थी। परन्तु (जैसा कि इस प्रकरण के प्रारम्भ में पला दिया गया है) गीता कंपन घेदान्त-प्रधान अपया भक्ति-प्रधान नहीं मिला महाभारत में जिन प्रमागाभूत श्रेष्ठ पुरुषों के परित्रों का पगान किया गया है उनके परिवों का नीतितत्य या मर्म बत- साने के लिये महाभारत में कर्मयोगप्रधान गीता का निरूपण अत्यन्त आवश्यक था; और, यतमान समय में महाभारत के जिस स्थान पर यह पाई जाती है उससे पढ़- फर, फायष्टि से भी, कोई अधिक योग्य पान उसके लिंग देश नहीं पड़ता। इतना सिद्ध होने पर प्रन्तिम सिदान्त यही मिश्रित होता है, कि गीता महाभारत में सचित कारगा से भार अपित एणान पर ही कही गईई-यह मशिप्त नहीं है। महाभारत के समान रामायण मी सर्वमान्य पार उत्कृए भाएं महाकाव्य है और उसमें भी कपा-प्रसंगानुसार सत्य, पुनशम, मातृधन, राजधर्म मादिका मार्मिक विवे. धन है। परन्तु यह यतमान को प्रायश्यकता नहीं, कि पाल्मीकि मपि का मूल हेतु अपने काय को महाभारत के समान " अनेक समयान्वित, सून्म धर्म-अधर्म के मक न्यायों रे भोतमोत, और सप लोगों को शील सया सचरित्र की शिक्षा देने में सर प्रकार से समपं " पनाने का नहीं था। इसलिये धर्म-अधर्म कार्य-भकार्य या मीति की दर से महामारत की योग्यता रामायण से कहीं पढ़कर है । महाभारत फेवरल या काग्य या फवल इतिहास नहीं है, किन्तु यह एफ संहिता है, जिसमें धर्म-अधर्म के सूनम प्रसंगों का निस्पण किया गया है और यदि इस धर्मसंहिता में कर्मयोग का शास्त्रीय तथा साविक विवेचन न किया जाय तो फिर यह फड़ी किया जा सकता फाल येदान्त-अन्यों में यह विवेचन नहीं किया जा सकता। उसके लिये योग्य स्थान धर्मसंहिता की और यदि महाभारतफार ने ग किया होता तो यह धर्म-अधर्म का पृन संग्रह भषया पाँचचर्चा येद उतना ही अपूर्ण रह जाता । इस ग्रुटि की पूर्ति करने के लिये ही भगपगीता महाभारत में रखी गई है। सचमुच या हमारा यड़ा भाग्य है कि इस फर्मयोग-शास का मयन महाभारतकार जैसे नाम ज्ञानी सत्पुरुप ने ही किया है, जो वेदान्तशास्त्र के समान ही व्यवहार में भी अत्यन्त निपुण थे। इस प्रकार सिद्ध हो चुका, कि वर्तमान भगवद्गीता प्रचलित महाभारत ही का एफ भाग है। अप उसके अर्थ का कुछ अधिक सष्टीकरण करना चाहिये । भारत और महाभारत शब्दों को हम लोग समानार्थक समझते हैं परन्तु वस्तुतः वे दो भिन्न भिन शब्द हैं। व्याकरण की ष्टि से देखा जाय तो 'भारत' नाम उस अन्य को प्राप्त हो सकता है जिसमें भरतवंशी राजाओं के पराक्रम का घर्णन हो । रामायगा, भागवत यादि शब्दों की व्युत्पत्ति ऐसी ही है। और, इस रीति भारतीय युद्ध का जिस अन्य में वर्णन है उसे केवल 'भारत कहना यथेष्ट हो सकता है, फिर वह मन्ध चाहे जितना विस्तृत हो । रामायण-अन्य कुछ छोटा यह विवेचन
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