५२२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । भगवान् ने अर्जुन को जो विश्वरूप दिखलाया था, वही सन्धि-प्रस्ताव के समय दुर्योधन श्रादि कौरवों को, और युद्ध के बाद द्वारका को लौटते समय मार्ग में उत्तंक को भगवान् ने दिखलाया; और नारायण ने नारद को तथा दाशरथि राम ने परशु. राम को दिखलाया है (उ. १३० अश्व. ५५; शां. ३३६; धनः ६)। इसमें सन्देह नहीं कि गीता का विश्वरूप-वर्णन इन चारों स्थानों के वर्णनों से कहीं अधिक सुरस और विस्तृत है परन्तु इन सब वर्णनों को पढ़ने से यह सहज ही मालूम हो जाता है, कि अर्थ-सादृश्य की दृष्टि से उनमें कोई नवीनता नहीं है । गीता के चौदहवें और पंद्रहवें अध्यायों में इन बातों का निरूपण किया गया है, कि सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों के कारण सृष्टि में भिन्नता कैसे उत्पन्न होती है, इन गुणों के लक्षण क्या है, और सब कर्तृत्व गुणों ही का है, आत्मा का नहीं; ठीक इसी प्रकार इन तीनों गुणों का वर्णन अनुगीता (अश्व. ३६-३६) में और शान्तिपर्व में भी अनेक स्थानों में पाया जाता है (शां. २०५ और ३००-३११)। सारांश, गीता में जिस प्रसंग का वर्णन किया गया है उसके अनुसार गीता में कुछ विषयों का विवेचन अधिक विस्तृत हो गया है और गीता की विषय-विवेचन-पद्धति भी कुछ मिल है, तथापि यह देख पड़ता है, कि गीता के सव विचारों से समानता रखनेवाले विचार महाभारत में भी पृथक् पृथकू कहीं न कहीं न्यूनाधिक पाये ही जाते है और यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि विचारसादृश्य के साथ ही साथ घोड़ी बहुत समता शन्दों में भी आप आप आ जाती है। मार्गशीर्ष महीने के सम्बन्ध की सशता तो बहुतही विलक्षण है। गीता में "मासानां मार्गशीर्षोऽई" (गी. १०३५) कह कर इस मास को जिस प्रकार पहला स्थान दिया है, उसी प्रकार अनुशासनपर्व के दानधर्म-प्रकरण में जहाँ उपवास के लिये महीनों के नाम बतलाने का मौका दो बार पाया है, वहाँ प्रत्येक बार मार्गशीर्ष से ही महीनों की गिन्ती प्रारंभ की गई है (अनु. १०६ और १०६) गीता में वर्णित भात्मौपम्य की या सर्व-भूत-हित की दृष्टि, अथवा प्राधिभौतिक, भाधिदैविक और आध्यात्मिक भेद, तथा देवयान और पितृयाण-ति का उल्लेख महाभारत के अनेक स्थानों में पाया जाता है। पिछले प्रकरणों में इनका विस्तृत विवेचन किया जा चुका है, अतएव यहाँ पुनरुक्ति की आवश्यकता नहीं। भापासादृश्य की ओर देखिये, या अर्थसादृश्य पर ध्यान दीजिये, अथवा गीता के विषय में जो महाभारत में छ:-सात उल्लेख मिलते हैं उन पर विचार कीजिये अनुमान यही करना पड़ता है, कि गीता, वर्तमान महाभारत का ही, एक भाग है और जिस पुरुष ने वर्तमान महाभारत की रचना की है उसी ने वर्तमान गीता का भी वर्णन किया है। हमने देखा है, कि इन सब प्रमाणों की ओर दुर्लक्ष्य करके अथवा किसी तरह उनका अटकल-पच्चू अर्थ लगा कर कुछ लोगों ने गीताको प्रक्षिप्त सिद्ध करने का यत्न किया है। परन्तु जो लोग बाह्य प्रमाणों को नहीं मानते और अपने ही संशयरूपी पिशाच को अग्रस्थान दिया करते हैं, उनकी विचार-पद्धति
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