पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५६०

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भाग १-गीता और महाभारत । ५२१ प्रतिपादन किया गया कि सोगयों के २५ साचों के परे एक न्यीसा ताप और ईसिसके शान के बिना फेवल्प माह मही होता। यह विचार-सारश्य केवल कर्मयोग गा सवारन इन्हीं दो विषयों के सम्बन्ध में ही नहीं देख पड़ता; किन्तु इन दो मुगर विएत्रों के अतिरिक्त गीता में जो प्रन्यान्य विषय है उनकी बराबरी के प्रकरण भी मामारत में कई जगह पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ, गीता के पहले भागार के आरंभ में ही योगाचार्य से दोनों सेना का जैसा पान दुर्योधन ने किया टीक वैसा ही गन, सागे भीमर के ५१ व अध्याय में, उसने फिर से दोगगागानदी निकट किया ६ । पहले सध्याय के उत्तरार्ध में अर्जुन को जमा विराद हुआ. या ही युधिष्ठिर को शान्तिपर्य के प्रारंभ में पापौर जय भीम राया होगा का योगयल से 'बध करने क समय सगीप गगा. नर अगुंग ने अपने मुख से फिर भी वैसे ही खेदयुक्त यवन को ६ (भीम. ९. -मार 10-1) गीता (3.३२, ३३) के प्रारंभ में भगंग ने कहा कि जिनके लिये उपभोग प्राप्त करना है उन्हों का वध करके जप मात करें तो उसका उपयोग की गया होगा; भार जय युर में सब कौरवों फा वध झगया नय यही पान मुधिन के गुप्त से भी निकली है (शल्प. ३१. ५२-५४) दुसरे पापार के बारंभ में जमे सांप सौर गोग ये दो निठाएं पतलाई गई ६, बले ही नारागीय धर्म में सौर शान्तिपर्व के गाएकोपाग्यान समा जनक-पुलमा-गयार में भी रन निटाबों का कान पाया जाता है (शां. १९६ और ३२०)ीरे ध्याय में कहा ई-सफर्म की अपेक्षा या अंधई फर्मन किया जाय तो मनीषिका भोग हो सकेगी, इत्यादि मो यही बातें धनपर्व के भारंभ महापरीने युधिष्टिर से पाटी है (वर. ३२), और उन तावों का उल्लेख मानुगीता में भी फिर से किया गया। श्रोत-धर्म या मात-धर्म गलमय है, यज्ञ और मजा शो मापदेय ने गाली मा निर्माण किया है, इत्यादि गीता का प्रवचन मासयपि धर्म में ससिरिन, शान्ति के अन्य कानों में (शा. २६७) और मगुरमति (३) में भी मिलता सार गुजाधारकाजलि संबाद में तथा मागा- म्याधगंवाद में भी यही विचार मिलते हैं, फिसपन रानुसारकर्म करने में कोई पाप नहीं ६ (शा. २६०-२६३और पर. २०६-२१५)। इसके सिवा, सृष्टि की उत्पतिमा जो नाला यान गीता के सातवें पार पाठय पध्यायों में है, उसी प्रकार का वर्णन शान्तिपर्व के शुभानुप्रश्न में भी पाया जाता है (शां २३१); और ठवें अध्याय में पातंजल योग मे सासनी का जो वर्णन है, उसी का फिर से शुफानुपम (शां. २३६) में और आगे चलकर शान्तिपर्व के अध्याय ३०० में तथा अनुगीता में भी विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है (अश्व. ) । अनुगीता के गुरु-शिष्य संवाद में किये गये मध्यमोत्तम वस्तुयों के वर्गान (प्रा. ५३ और ४४) और गीता के दसवें अध्याय के विभूति-वर्णन के विषय में तो यह कहा जा सकता कि इन दोनों का प्रायः एक ही अर्थ है । महाभारत में कहा है कि गीता में गी. र. ६६