गीतारहस्य भयवा कर्मयोग-परिशिष्ट। तत्त्व कहीं न कहीं बतलाना भावश्यक था, इसलिये उसे भगवद्गीता में वतलाकर व्यावहारिक धर्म-अधर्म के अथवा कार्य-अकार्य-व्यवस्थिति के निरूपण की पूर्ति गीता ही में की है। वनपर्व के ब्राह्मण-व्याध-संवाद में व्याध ने वेदान्त के आधार पर इस बात का विवेचन किया है, कि "मैं मांस बेचने का रोज़गार क्यों करता " और, शांतिपर्व के तुलाधार-जाजलि-संवाद में भी, उसी तरह, तुलाधार ने अपने वाणिज्य व्यवसाय का समर्थन किया है (वन. २०६-२१५ और शां. २६०- २६३)। परन्तु यह उपपत्ति उन विशिष्ट व्यवसायों ही की है। इसी प्रकार अहिंसा, सत्य भादि विषयों का विवेचन यद्यपि महाभारत में कई स्थानों पर मिलता है, तथापि वह भी एकदेशीय अर्थात उन विशिष्ट विषयों के लिये ही है, इसलिये वह महाभारत का प्रधान भाग नहीं माना जा सकता । इस प्रकार के एकदेशीय विवेचन से यह भी निर्णय नहीं किया जा सकता कि, जिन भगवान् श्रीकृष्ण और पांडवों के उज्ज्वल कार्यों का वर्णन करने के लिये व्यासजी ने महाभारत की रचना की है, उन महानुभावों के चरित्रों को भादर्श मान कर मनुष्य उस प्रकार आचरण करे या नहीं। यदि यही मान लिया जाय कि संसार निःसार है और कभी न कभी संन्यास लेना ही हितकारक है, तो स्वभा- वतः ये प्रश्न उपस्थित होते है, कि श्रीकृष्ण तथा पांडवों को इतनी झंझट में पड़ने का कारण ही क्या था? और, यदि उनके प्रयत्नों का कुछ हेतु मान भी लिया जाय तो लोकसंप्रक्षार्थ उनका गौरव करके व्यासजी को तीन वर्ष पर्यन्त लगातार परिश्रम करके (ममा. प्रा. र. ५२) एक लाख श्लोकों के वृहत् ग्रंथ को लिखने का प्रयोजन ही क्या था! केवल इतना ही कह देने से ये प्रश्न यथेष्ट हल नहीं हो सकते, कि वर्णाश्रम-कर्म चित्त शुद्धि के लिये किये जाते हैं। क्योंकि, चाहे जो कहा जाय, स्वधर्माचरण अथवा जगत के अन्य सव व्यवहार तो संन्यास दृष्टि से गौण ही माने जाते हैं। इसलिये, महाभारत में जिन महान् पुरुषों के चरित्रों का वर्णन किया गया है, उन महात्माओं के आचरण पर "मूले कुलारः" न्याय से होनेवाले प्रादेप को हटा कर, उक ग्रंथ में कहीं न कहीं विस्तारपूर्वक यह बत- माना मावश्यक था कि संसार के सब काम करना चाहिये अथवा नहीं और यदि कहा जाय कि करना चाहिये, तो प्रत्येक मनुष्य को अपना अपना कर्म संसार में किस प्रकार करना चाहिये, जिससे वह कर्म उसकी मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में वाधा ने डाल सके । नलोपाख्यान, रामोपाख्यान आदि महाभारत के उपाख्यानों में उक्त बातों का विवेचन करना उपयुक्त न हुआ होता; क्योंकि ऐसा करने से उन उपांगों के सदृश यह विवेचन भी गौण ही माना गया होता । इसी प्रकार वनपर्व अथवा शांतिपर्व के अनेक विषयों की खिचड़ी में यदि गीता को भी सम्मिलित कर दिया जाता, तो उसका महत्व अवश्य घट गया होता। अतएव, उद्योगपर्व समाप्त होने पर, महाभारत का प्रधान कार्य-भारतीय युद-प्रारंभ होने के ठीक मौके पर ही, उस कार्य पर ऐसे श्राप किये गये है
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