गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । प्रतिपाद्य विषय कर्मसंन्यास-पन भले ही हो परन्तु स्वयं उनके जीवन-चरित से ही यह बात सिद्ध होती है, कि ज्ञानी पुरुषों को तथा संन्यासियों को भी धर्मसंस्था- पना के समान लोकसंग्रह के काम यथाधिकार करने के लिये उनकी ओर से कुछ मनाही नहीं थी (वेसू. शां. भा. ३. ३.३२) संन्यासमार्ग की प्रबलता का कारण यदि शंकराचार्य का स्मार्त सम्प्रदाय ही होता, तो आधुनिक भागवत-सम्प्र- दाय के रामानुजाचार्य अपने गीतामाप्य में शंकराचार्य की ही नाई कर्मयोग को गौण नहीं मानते । परन्तु जो कर्मयोग एकवार तेज़ी से जारी था वह जव कि भागवत-सम्प्रदाय में भी निवृत्ति प्रधान भक्ति से पीछे हटा दिया गया है, तब तो यही कहना पड़ता है कि उसके पिछड़ जाने के लिये कुछ ऐसे कारण अवश्य उप- स्थित हुए होंगे, जो सभी सम्प्रदायों को अथवा सारे देश को एक ही समान लागू हो सकें । हमारे मतानुसार इनमें से पहला और प्रधान कारण जैन एवं बौद्ध धर्मों का उदय तथा प्रचार है। क्योंकि इन्हीं दोनों धी ने चारों वर्षों के लिये संन्यासमार्ग का दरवाजा खोल दिया था और इसीलिये क्षत्रियवर्ण में भी संन्यास- धर्म का विशेष उत्कर्ष होने लगा था । परन्तु, यद्यपि आरम्भ में बुद्ध ने कर्म-रहित संन्यासमार्ग का ही उपदेश दिया था, तथापि गीता के कर्मयोगानुसार बौद्धधर्म में शीघ्र ही यह सुधार किया गया, कि वौद्धयतियों को अकेले जंगल में जा कर एक कोने में नहीं बैठे रहना चाहिये, बल्कि उनको धर्म प्रचार के लिये तथा परोप- कार के अन्य काम करने के लिये संदेव प्रयत्न करते रहना चाहिये (देखो परिशिष्ट अकरण) । इतिहास-अंघों से यह बात प्रगट है कि इसी सुधार के कारण उद्योगी बौद्धधर्मीय यति लोगों के संघ उत्तर में तिब्बत, पूर्व में ब्रह्मादेश, चीन और जापान, दक्षिण में लंका और पश्चिम में तुर्किस्थान तथा उससे लगे हुः ग्रीस इत्यादि यूरोप के प्रान्तों तक जा पहुंचे थे। शालिवाहन शक के लगमग छः सात सौ वर्ष पहले जैन और बौद्ध धर्मों के प्रवर्तकों का जन्म हुआ था और श्रीशंकराचार्य का जन्म शालिवाहन शक के छ: सौ वर्ष अनन्तर हुआ। इस बीच में बौद्ध यतियों के संघों का अपूर्व वैभव सब लोग अपनी आँखों के सामने देख रहे थे, इसलिये यति- धर्म के विषय में उन लोगों में एक प्रकार की चाह तथा आदरखुदि शंकराचार्य के जन्म के पहले ही उत्पन्न हो चुकी थी । शंकराचार्य ने यद्यपि जैन • और बौद्ध-धर्मों का खंडन किया है, तथापि यतिधर्म के बारे में लोगों में जो आदखादि उत्पन्न हो चुकी थी उसका उन्हों ने नाश नहीं किया, किन्तु उसी को वैदिक रूप दे दिया और बौद्धधर्म के बदले वैदिकधर्म की संस्थापना करने के लिये उन्हों ने बहुत से प्रयत्नशील वैदिक संन्यासी तैयार किये । ये संन्यासी ब्रह्म- चर्यव्रत से रहते और संन्यास का दंढ तथा गेल्या वस्त्र भी धारण करते थे; परंतु अपने गुरु के समान इन लोगों ने भी वैदिकधर्म की स्थापना का काम आगे जारी रखा था । यति-संघ की इस नई जोड़ी (वैदिक संन्यासियों के संघ) को देख उस समय अनेक लोगों के मन में शंका होने लगी थी, कि शांकरमत में और बौद्धमत
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