गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । कि केवल सुखोपभोग के लिये । झुछ लोग गीता के नीति-धर्म को केवल चातुर्वण्र्य-मूलक समझते हैं, लेकिन उनकी यह समझ ठीक नहीं है । चाहे समाज हिन्दुओं का हो या म्लेच्छों का, चाहे वह प्राचीन हो या अर्वाचीन, घाई वह पूरी हो या पश्चिमी; इसमें सन्देह नहीं कि यदि उस समाज में चानुवरयं- व्यवस्था प्रचलित हो तो उस व्यवस्था के अनुसार, या दूसरी समाजव्यवस्था नारी हो तो उस व्यवस्था के अनुसार, जो काम अपने हिस में या पड़े अथवा जिसे हम अपनी रुचि के अनुसार कर्तव्य समझ कर पुकवार स्वीकृत कर ले बद्दी अपना स्व- धर्म हो जाता है। और, गीता यह कहती है कि किसी भी कारण से इस धर्म को ऐन मौके पर छोड़ देना और दूसरे कामों में लग जाना, धर्म की तथा सर्वभूतहित की दृष्टि से, निन्दनीय है। यही तात्पर्य " स्त्रधर्म निधनं श्रेयः परधर्ना भयावहः" (गी. ३.३५) इस गीता-वचन का है- अर्थात स्वधर्मपालन में यदि मृत्यु हो जाय तो वह भी श्रेयस्कर है, परन्तु दूसरों का धर्म भयावह होता है । इसी न्याय के अनुसार माधवराव पेशवा को (जिन्हॉन ब्राह्मण होकर भी तत्कालीन देशका- लानुरूप क्षात्रधर्म का स्वीकार किया था ) रामशास्त्री ने यह उपदेश किया था, कि " स्नान-संध्या और पूजापाठ में सारा समय व्यतीत न कर ज्ञानधर्म के अनुसार प्रता की रक्षा करने में अपना सब समय लगा देन ले ही तुम्हारा उभय लोक में कल्याण होगा।" यह वात महाराष्ट्र इतिहास में प्रसिद्ध है। गीता का मुख्य टपटेश यह बतलाने का नहीं है, कि समाजवारणा के लिये कैसी व्यवस्था होनी चाहिये । गीताशास्त्र का तात्पर्य यही है कि समाजन्यवस्था चाहे कैसी भी हो, उसमें जो ययाधिकार कर्म तुम्हारे हिल्ले में पड़ जॉय, उन्हें उत्साहपूर्वक करके सर्वभूतहितल्पी आत्मश्रेय की सिद्धि करो। इस तरह से कन्य मानकर गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ पुरुप जो कम किया करते हैं वे स्वभाव से ही लोककल्याण- कारक हुआ करते हैं । गीताप्रतिपादित इस कर्मयोग में और पादाय आधिभौ- तिक कर्ममार्ग में यह एक बड़ा भारी भेद है, कि गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञों के मन में यह अमिमानवुदि रहती ही नहीं कि में लोककल्याण अपने कमों के द्वारा करता हूँ, बल्कि उनके देह-स्वभाव ही में साम्यबुद्धि आ जाती है और इसी से वे लोग अपने समय की समानत्यवस्था के अनुसार केवल कर्तव्य समझ कर जो जो कर्म किया करते हैं, वे सब स्वभावतः लोककल्याणकारक हुआ करते हैं और, आधुनिक पाश्चात्य नीतिशास्त्रज्ञ संसार को सुखमय नानकर कहा करते हैं कि इस संसारमुख की प्राप्ति के लिये लय लोगों को लोककल्याण का कार्य करना चाहिये। कुछ समी पाश्चात्य अाधुनिन कर्मयोगी संसार को सुखमय नहीं मानते शोपेनहर के समान संसार को दुःख-प्रधान माननेवाले पण्डित मी वहाँ हैं, जो यह प्रतिपादन करते हैं कि यथा-शक्ति लोगों के दुःख का निवारण, करना ज्ञानी पुरुषों का कर्तव्य है, इसलिये संसार को न छोड़ते हुए उनका ऐसा प्रयत्न करते रहना
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