गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । "ईसा के मकों को न्य-सञ्चय न करके रहना चाहिये " (मेव्यू. १०.६-१५)। ईसाई धमोपदेशकों में तया ईसा के भवन में गृहत्य-धर्म से संसार में रहने की जो रीति पाई जाती है, वह बहुत दिनों के बाद होनेवाले सुधारों का फल है-वह मूल ईसाईधर्म का स्वरूप नहीं है। वर्तमान समय में भी शोपेनहर सरीले विद्वान् यही प्रतिपादन करते हैं, कि संसार दुःखमय होने के कारण त्यान्य है और, पहले यह वतलाया जा चुका है कि ग्रीस देश में प्राचीन काल में यह प्रश्न उपस्थित हुआ था, कि तत्वविचार में ही अपने जीवन को व्यतीत कर देना श्रेष्ट है, या लोकाईत के लिये राजकीय नामलों में प्रयत्न करते रहना श्रेष्ठ है। सारांश यह है कि, पश्चिमी लोगों का यह कर्मत्याग-पन्न और हम लोगों का संन्यासमार्ग कई अंशों में एक ही है और इन मागों का समर्थन करने की पूर्वी और पश्चिमी पद्धति भी एक ही सी है। पल्तु आधुनिक पश्विनी पंडित कर्मत्याग की अपेक्षा कर्मयोग की श्रेष्ठता के जो कारण बतलाते हैं, वैनीता में दिये गये प्रवृत्तिमार्ग के प्रतिपादन से भिन्न है। इसलिये अब इन दोनों के मेद को भी यहाँ पर अवश्य बतलाना चाहिये । पश्चिमी आधिभौतिक कर्ममार्गियों का कहना है, कि संसार के सब मनुष्यों का अथवा अधिकांश लोगों का अधिक सुख-अर्थात ऐहिक सुख-ही इस जगत् में परम- साध्य है, अतएव सब लोगों के सुख के लिये प्रयत्न करते हुए उसी सुख में स्वयं मन हो जाना ही प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है और, इसकी पुष्टि के लिये उनमें से अविनाश पंडित यह प्रतिपादन भी करते हैं कि संसार में दुःख की अपेक्षा सुख ही अधिक है। इस दृष्टि से देखने पर यही कहना पड़ता है कि पश्चिमी कर्ममार्गार्य लोग" सुख-प्राप्ति की आशा से सांसारिक कर्म करनेवाले" होते हैं और पश्चिमी कर्मत्याग-मार्गीय लोग " संसार से ज्बे हुए होते हैं। तया कदाचित् इसी कारण से उनको क्रमानुसार 'आशावादी' और निराशावादी' कहते है। परन्तु भगव- गीता में जिन दो निष्ठात्रों का वर्णन है वे इनसे भिन्न हैं। चाहे स्वयं अपने लिये होया परोपकार के लिये हो, कुछ भी हो, परन्तु जो मनुष्य ऐहिक विषय सुख पाने की लालसा से संसार के कनों में प्रवृत्त होता है उसकी साम्यबुदिरूप सात्विक वृत्रि में कुछ न कुछ वट्टा अवश्य लग जाता है। इसलिये गीता का यह उपदेश है, कि संसार दुःखमय हो या सुखमय, सांसारिक कम जब छूटते ही नहीं तब उनके सुखदुःख का विचार करते रहने से कुछ लाम नहीं होगा । चाहे सुख हो जैग्स सनी (James Sulli) ने अपने Pessimism नानक ग्रंथ में Opti- mist और Pessimist नानक दो पयों का वर्णन किया है । इनमें से Optimist, का नर्थ उजाहो, आनन्दित और Pessimisinा यज्ञार ने वस्त' होता है और पहले एक डिम्पनी में बदल दिया गया है कि शब्द गीता के 'योग' और 'स्या के नमानार्य नहीं है (देखो पृष्ठ ३०४ )। दुःख-निवारणेच्छुक "नानक जो एक चीजरा पंथ है और दिन्न वर्गन मागे किया गया है, उनका सली ने feliorism नान रखा है।
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